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________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका । [१५३ अर्थ-अपनेमें अधिक गुण समझकर अपनी प्रशंसा करना और दूसरोंको हीनला सिद्ध करनेकी बुद्धि रखना विनिकित्सा मानी गई है । निर्विचिकित्सा--- निष्क्रान्तो विचिकित्मायाः प्रोको निर्विचिकित्मकः । गुणः सद्दर्शनस्थोच्चैर्वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा ॥ ५७९ ॥ अर्थ-उपर्युक्त कही हुई विनिकित्सासे रहित जो भाव है वही निर्विचिकित्सा गुण कहा गया है । वह सम्यग्दृष्टिका उन्नत गुण है, उसका लक्षण कहा जाता है दुर्दैवा:खिते पुंमि तीवाऽसाताघृणास्पदे । यन्नादयापरं चेतः स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥ ५८० ।। अर्थ-जो पुरुष खोटे कर्मके उदयसे दुखी हो रहा है, और तीव्र असातावंदनीयक जो निन्द्यस्थान बन रहा है ऐसे पुरुषके विषयमें चित्तमें उदयाबुद्धि नहीं होना वही निर्विचिकित्सा गुण कहा गया है। विचार-परम्पगनैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं सम्पदा पदम् । नासावस्मत्समो दीनो वराको विपदां पदम् ॥ ५८१ ॥ अर्थ-इस प्रकारका मनमें अज्ञान नहीं होना चाहिये कि मैं सम्पत्तियोंका पर हं और यह विचारा दीन विपत्तियों का घर है, यह मेरे समान नहीं हो सका। प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजाः। प्राणिनः सदृशाः सर्वे त्रसस्थावरयोनयः ॥ ५८२ ॥ अर्थ-उपयुक्त अज्ञान न होकर ऐमा ज्ञान होना चाहिये कि कर्मके उदयसे सभी त्रम, स्थावर योनिवाले प्राणी समान हैं। विना दृष्टान्त यथा बावको जातौ शूद्रिकायास्तथोदरात् । शूद्रावभ्रान्तितस्तौ द्वौ कृतो भेदो भ्रमात्मना ।। ५८३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार शूद्रीके गर्भसे दो बालक पैदा हुए। वास्तव में वे दोनों ही निर्धान्तरीतिसे शूद हैं, परन्तु भ्रमात्मा उनमें भेद समझने लगता है । भावार्थ-ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि शूद्रीके दो मालक हुए थे। उन्होंने भिन्न २ कार्य करना शुरू किया था। एकाने उच्च वर्णका कार्य प्रारम्भ किया था और दूसरेने शूद्रका ही कार्य प्रारम्भ किया था। बहुतसे मनुष्य भ्रमसे उन्हें भिन्न २ समझने लगे थे। परन्तु वास्तबमें वे दोनों ही एक मासे उ० २०
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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