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________________ १५२. पश्चाध्यायी। [ दूसरा आशंकानाशंक्यं चास्ति निःकांक्षः सामान्योपि जनः कचित् । हेतोः कुतश्चिदन्यत्र दर्शनातिशयादपि ॥ ५७३ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनके अतिशय रूप हेतुको छोड़ कर कहीं दूसरी जगह सामान्य आदमी भी आकांक्षा रहित हो जाता है ? ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये। क्योंकियतो निष्कांक्षता नास्ति न्यायात्सद्दर्शनं विना । नानिच्छास्त्यक्षजे सौख्ये तदत्यक्षमनिच्छतः ॥ ५७४ ॥ अर्थ-क्योंकि विना सम्यग्दर्शनके हुए निष्कांक्षता हो ही नहीं सकती है, यह न्याय सिद्ध है क्योंकि जो अतीन्द्रिय सुखको नहीं चाहता है उसकी इन्द्रियजन्य सुखमें अनिच्छा भी नहीं होती है। मिथ्यादृष्टीतदत्यक्षसुखं मोहान्मिथ्यादृष्टिः स नेच्छति। दृमोहस्य तथा पाकः शक्तः सद्भावतोऽनिशम् ॥ ५७५ ॥ अर्थ-उस अतीन्द्रिय सुखको मोहनीय कर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि नहीं चाहता। है क्योंकि शक्तिका सद्भाव होनेसे दर्शन मोहनीयका निरन्तर पाक ही वैसा होता रहता है। " उक्तो निष्कांक्षितो भावो गुणः सद्दर्शनस्य वै। सस्तु का नःक्षतिः प्राक्चेत्परीक्षा क्षमता मता ॥ ५७६ ॥ अर्थ-निष्कांक्षित भाव कहा जाचुका, यह सम्यग्दृष्टिका ही गुण है ऐसा कहने में हमारी कोई हानि नहीं हैं यह परीक्षा सिद्ध वात है। भावार्थ-परीक्षक स्वयं निश्चय कर सत्ता है कि निष्कांक्षित भाव विना सम्यग्दर्शनके नहीं हो सकता इस लिये यह सम्यग्दष्टिका ही गुण है। निर्विचिकित्साअथ निर्विकित्साख्यो गुणः संलक्ष्यते स यः । अदर्शनगुणस्योच्चैर्गुणो युक्तिवशादपि ॥ ५७७॥ अर्थ-अब निर्विकित्सा नामक गुण कहा जाता है। जो कि युक्ति द्वारा भी सम्यग्दृष्टिका ही एक उन्नत गुण समझा गया है। विचिकित्सा-- आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सा स्मृता ॥ ५७८॥ .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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