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________________ १२०] पश्चाध्यायी। [ दूसरा . भावार्थ-श्रद्धादिक कहनेसे सम्यक् श्रद्धा आदिका ही बोध होता है। यदि सम्यक न हों तो उन्हें श्रद्धादिक न कह कर मिथ्या श्रद्धादि कहना चाहिये। शङ्काकार. ननु तत्त्वरुचिः श्रडा श्रडामात्रैकलक्षणात् । सम्यङ् मिथ्याविशेषाभ्यां सा द्विधा तत्कुतोर्थतः ॥ ४१९॥ अर्थ-शङ्काकार कहता है कि तत्वरूचिका नाम ही श्रद्धा है क्योंकि श्रद्धाका लक्षण श्रद्धामात्र ही है । फिर वह श्रद्धा, सम्यक् श्रद्धा और मिथ्या श्रद्धा ऐसे दो भेद वाली वास्तवमें कैसे हो जाती है ? उत्तर-- नैवं यतः समव्याप्तिः श्रद्धा स्वानुभवद्वयोः । नूनं नानुपलब्धेर्थे श्रद्धा खरविषाणवत् ॥ ४२० ॥ अर्थ--शङ्काकारका उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि श्रद्धा और स्वानुभूति, इन दोनोंमें समव्याप्ति है । अर्थात् दोनों ही साथ होनेवाली हैं इसलिये अनुपलब्ध पदार्थमें गधेके सींगकी तरह श्रद्धा निश्चयसे नहीं होसक्ती । विना स्वार्थानुभूतिं तु या श्रद्धा श्रुतमात्रतः । तत्त्वार्थानुगताप्यर्थाच्छ्डा नानुपलब्धितः ॥ ४२१॥ अर्थ-बिना स्वार्थानुभवके जो श्रद्धा केवल सुननेसे अथवा शास्त्रज्ञानसे ही है वह तत्त्वार्थके अनुकूल होने पर भी पदार्थकी उपलब्धि न होनेसे श्रद्धा नहीं कहलाती। भावार्थ-बिना स्वार्थानुभूतिके होनेवाली श्रद्धा, वास्तवमें श्रद्धा नहीं है और न उसे सम्यग्दर्शन ही कह सक्ते क्योंकि उसमें आत्मतत्त्व विषय नहीं पड़ता है। लब्धिः स्यादविशेषादा सदसतोरुन्मत्तवत् । नोपलब्धिरिहाथोत्सा तच्छेषानुपलब्धिवत् ॥ ४२२॥ अर्थ-उन्मत्त पुरुषकी तरह सत् पदार्थ और असत् पदार्थ ( यथार्थ अयथार्थ )में सामान्य रीतिसे होनेवाली लब्धि वास्तवमें उपलब्धि (प्राप्ति ) नहीं है। किन्तु अनुपलब्धिकी तरह ( ठीक पदार्थको विषय न करनेसे ) वह भी अनुपलब्धि ही है । निष्कर्षततोऽस्ति यौगिकी रूढिः श्रद्धा सम्यक्त्वलक्षणम् । अर्थादप्यविरुद्धं स्यात्सूक्तं स्वात्मानुभूतिवत् ॥ ४२३ ।। अर्थ-इसलिये यौगिक रीतिसे भी श्रद्धा सम्यक्त्वका लक्षण है और रूढिसे भी सम्यक्वका लक्षण है। पहलेका यह कथन कि जो स्वानुभूति सहित है वही श्रद्धा कहलाती है, सर्वथा ठीक और अविरोधी है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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