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________________ अध्याय । ] सुबोधिनीटीका । [११९ समझे जाते हैं और विना स्वानुभूतिके गुणामास समझे जाते हैं । अर्थात् स्वानुभूतिके अभाव में श्रद्धा आदिक गुण नहीं समझे जाते । सारांश तत्स्याच्छ्र-डादयः सर्वे सम्यक्त्वं स्वानुभूतिमत् । न सम्यक्त्वं तदाभासा मिथ्या श्रद्धादिवत् स्वतः ॥ ४१६ ॥ अर्थ - - इसलिये ऊपर कहने का यही सारांश है कि श्रद्धा आदिक चारों ही यदि स्वानुभूतिके साथ हों तो वे ही श्रद्धा आदिक सम्यग्दर्शन समझे जाते हैं और यदि श्रद्धा आदि मिथ्यारूप हों - मिश्रा श्रद्धा आदि हों तो सम्यक्त्व नहीं समझे जाते किन्तु श्रद्धाभास और रुच्यामास आदि समझे जाते हैं । 1 भवार्थ -- स्वानुभूति सम्यक्त्वका अविनाभाविगुण है । जिस प्रकार अविनाभावी होने से स्वानुभूतिको ही सम्पग्दर्शन कहते हैं, उसी प्रकार स्वानुभूतिके साथ यदि श्रद्धा आदिक हों तो उन्हें भी सम्यग्दर्शन कहना चाहिये परन्तु यदि श्रद्धा आदिक मिथ्यात्व के साथ हों तो उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं कहना चाहिये किन्तु श्रद्धाभास रुच्भभास एवं सम्यक्त्वाभास समझना चाहिये । सामान्य श्रद्धादिक भी सम्यक्त्वके गुण नहीं हैसम्यङ्गिमिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रकाः । सपक्षवद्विपक्षेपि वृत्तित्वाद्व्यभिचारिणः ॥ ४१७ ॥ अर्थ -- जो श्रद्धा आदि न तो सम्यक् विशेषण रखते हों, और न मिथ्या विशेषण ही रखते हों तो वे सपक्षकी तरह विपक्षमें भी रह सके हैं, इसलिये व्यभिचारी हैं । भावार्थ- - सामान्य श्रद्धा आदिको न तो सम्यग्दर्शन सहित ही कह सक्ते हैं और न मिथ्यादर्शन सहित ही कह सक्ते हैं। ऐसी सन्दिग्ध अवस्था में वे सम्यक् मिथ्या विशेषण रहित सामान्य श्रद्धादिक मी सदोषी हैं । इसीका स्पष्ट कथन अर्थाच्छ्डादयः सम्यग्दृष्टिः श्रद्धादयो यत्रः । मिथ्या श्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छ्रडादयो यतः ॥ ४९८ ॥ अर्थ — अर्थात् श्रद्धादिक यदि सम्यकू ( यथार्थ ) हों तब तो वे श्रद्धादिक कहलाते हैं परन्तु यदि श्रद्धादिक-मिया ( अयथार्थ ) हों तब वे श्रद्धादिक नहीं कहे जाते किन्तु मि समझे जाते हैं ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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