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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। सम्यक्त्वकी दुर्लक्ष्यतामें दृष्टान्तयथोल्लाघो हि दुर्लक्ष्यो लक्ष्यते स्थूललक्षणैः । वा मन:कायचेष्टानामुत्साहादिगुणात्मकैः ॥ ३८८॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी रोगीकी नीरोगताका जानना बहुत कठिन है, परन्तु मन और शरीरकी चेष्टाओंके उत्साहादिक स्थूल लक्षणोंसे उसकी नीरोगताका ज्ञान कर लिया जाता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन एक निर्विकल्पक सूक्ष्म गुण है। तथापि उपर्युक्त बाह्य लक्षणोंसे उसका ज्ञान कर लिया जाता है। शङ्काकारनत्वात्मानुभवः साक्षात् सम्यक्त्वं वस्तुतः स्वयम् । सर्वतः सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टरसंभवात् ॥ ३८९॥ अर्थ-शङ्काकार कहता है कि वास्तवमें आत्मानुभव ही साक्षात् सम्यक्त्व है क्योंकि आत्मानुभव मिथ्यादृष्टिके कभी कहींभी नहीं हो सकता । मिथ्यादृष्टिके आत्मानुभवका होना असंभव है इसलिये आत्मानुभव ही स्वयं सम्यक्त्व है ? उत्तरनैवं यतोऽनभिज्ञोसि सत्सामान्यविशेषयोः। अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते ।। ३९० ॥ अर्थ-शङ्काकारसे आचार्य कहते हैं कि तुम्हारा कहना ठीक नहीं है, तुम सामान्य और विशेषमें कुछ भेद ही नहीं समझते, और न अनाकार, साकारका ही तुम्हें ज्ञान है इस लिये तुम सुनो हम कहते हैं ज्ञानका लक्षणआकारार्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैतडि लक्षणम् ॥ ३९१ ॥ अर्थ-आकार कहते हैं अर्थ विकरुपको । अर्थ नाम है स्वपर पदार्थका । विकल्प नाम है उपयोगावस्थाका । यह ज्ञानका लक्षण है। भावार्थ-आत्मा और इतर पदार्थोंका उपयोगात्मक भेद विज्ञान होना ही आकार कहलाता है । यही आकार ज्ञानका लक्षण है। पदार्थोके भेदाभेदको लिये हुए निश्चयात्मक विरुद्धता है तथा वास्तवमें भिन्नता भी नहीं है। यह जो आपको विरोधसा दीखता है वह केवल कथन शैली है, अपेक्षाका ध्यान रखने पर सभी कथन अविरोधी हो जाता है। जितना भी भिन्नर कथन है वह अपेक्षा कृतभेदको लिये हुए है वह अपेक्षा कौनसी है और सम्यक्त्व कैसे जाना जासक्ता है, इन सब बातोंका विवेचन स्वयं आगे चल कर खुल जायगा ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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