SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० पञ्चाध्यायी। [ दुसरां. उसी प्रकारदृङ्मोहस्योदयान्मूर्छा वैचित्यं वा तथा भ्रमः। प्रशान्ते त्वस्य मूर्छाया नाशाजीवो निरामयः ॥ ३८५ ॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जीवको मूर्छा रहा करती है, तया इसका चित्त ठिकाने नहीं रहता है और हरएक पदार्थमें भ्रम रहता है, परन्तु उस मोहनीयके शान्त (उपशमित) होने पर मूर्छाका नाश होनेसे यह जीव नीरोम होजाता है । सम्यग्दर्शनके लक्षणोंपर विचारश्रद्धानादिगुणा बाह्य लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः। न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ ३८६ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टिके जो श्रद्धान, आदि गुण बतलाये हैं वे सत्र बाह्य लक्षण हैं, क्योंकि श्रद्धानादिक सम्यक्त्वरूप नहीं हैं, किन्तु वे सब ज्ञानकी पर्याय हैं। भावार्थ--'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन' इस सूत्रमें सम्यग्दर्शनका लक्षण जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान बतलाया है । परन्तु वास्तवमें ज्ञान भी यही है कि जैसेका तैसा जानना और सम्यक्त्व भी यही है कि जैसेका तैसा श्रद्धान करना। इसलिये उपयुक्त लक्षण ज्ञानरूप ही पड़ता है। इसी प्रकार समन्तभद्रस्वामीने जो " श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढ़मष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ' इस श्लोक द्वारा देव शास्त्र गुरुका यथार्थ श्रद्धान करना सम्यक्त्व बतलाया है वह भी ज्ञान ही की पर्याय है। इसलिये ये सब बाह्य लक्षण हैं । __ और भीअपि चित्सानुभूतिस्तु ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद्वाह्यलक्षणम् ॥ ३८७॥ अर्थ-और भी समयसारकारने सम्यक्त्वका लक्षण आत्मानुभूतिको बतलाया है। वह लक्षण ज्ञानरूप ही पड़ता है क्योंकि आत्माका अनुभव (प्रत्यक्ष) ज्ञानकी ही पर्याय विशेष है। इसलिये ज्ञानरूप होनेसे यह भी सम्यक्त्वका लक्षण नहीं होसक्ता, यदि माना जाय तो केवली इसे बाह्य लक्षण ही कह सक्ते हैं । * * नोट-यहांपर यह कह देना आवश्यक है कि उपयुक्त सम्यक्त्वके लक्षण भिन्नर आचार्यों द्वारा भिन्नर रीतिसे कहे गये हैं। इस विषयमें कोई२ महाशय सन्देह करेंगे कि आचार्योंके कथनमें यह विरोध कैसा ? किसका लक्षण ठीक माना जा और किसका अशुद्ध समझा जावे ? तथा पञ्चाध्यामीकारने सभीके लक्षणोंको ज्ञानकी ही पर्याय बतला दिया है फिर सम्यक्त्वका स्वरूप कैसे जाना जा सक्ता है ? ऐसे सन्देह करनेघाले सजनोंसे प्रार्थना है कि वे आगेका कथन पढते जाय, उन्हें अपने आप ही मालूम होजायगा कि न तो किसी आचार्यका कथन मिथ्या है, और न किसीके कथनमें परस्पर
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy