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________________ पश्चाध्यायी। [ दूसरा अर्ष—यह इन्द्रियजन्य ज्ञान छह द्रव्योंमें केवल मूर्त (पुद्गल) द्रव्यको ही दिङ् मात्र ( थोड़ासा ) जानता है। उस पुद्गल द्रव्यमें भी सूक्ष्म पदार्थोंको तो जानता ही नहीं, किन्तु स्थूलोंको जानता है, सो भी सवोंको नहीं, किन्तु किन्हीं किन्हीं पदार्थों को ही जानता है। सत्सु ग्राह्येषु तत्रापि नाग्राह्येषु कदाचन । तत्रापि विद्यमानेषु नातीतानागतेषु च ॥ २८७॥ अर्थ- उन किन्हीं किन्हीं स्थूल पदार्थोंमें भी जो ग्राह्य हैं अर्थात् इन्द्रियद्वारा ग्रहण करने योग्य हैं उन्हींको जानता है, जो अग्राह्य हैं उन्हें नहीं जानता। ग्राह्य पदार्थोमें भी जो सामने मोजूद हैं उन्हींको जानता है, जो होचुके हैं अथवा जो होनेवाले हैं उन्हें वह नहीं जानता। तत्रापि सन्निधानत्वे सन्निकर्षेषु सत्सु च ।। तत्राप्यवग्रहेहादी ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात् ।। २८८ ॥ अर्थ-जो सामने मौजूद पदार्थ हैं उनमें भी जिन पदार्थोका इन्द्रियोंके साथ सन्निधान (अत्यन्त निकटता) और सन्निकर्ष (संयोग) है उन्हीका ज्ञान होता है, उनमें भी अवग्रह, ईहा आदिकके होने पर ही ज्ञान होता है अन्यथा नहीं। समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सत्स्वपि । कदाचिज्जायते ज्ञानमुपर्युपरि शुद्धितः ॥ २८९॥ अर्थ--उपर्युक्त कारणोंके मिलने पर भी समस्त पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, किन्तु भिन्न भिन्न पदार्थोका होता है, वह भी तभी होता है जब कि ऊपर ऊपर कुछ शुद्धि बढ़ती जाती है, सो भी सदा नहीं होता किन्तु कभी कभी होता है। ज्ञानोंमें शुद्धिका विचारतद्यथा मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य वा सतः। आलापाः सन्त्यसंख्यातास्तत्रानन्ताश्च शक्तयः ॥ २९०॥ अर्थ-ऊपर ऊपर ज्ञानमें शुद्धता किस प्रकार आती है ? इसी वातको बतलाते हैं। मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञानके असंख्यात मेद हैं और उन भेदोंमें भी अनन्त शक्तियां भरी इतने भेदोंका कारण-- तेषामावरणान्युच्चैरालापाच्छक्तितोथवा । प्रत्येकं सन्ति तावन्ति सन्तानस्यानतिक्रमात् ॥ २९१ ।। अर्थ--जितने मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके भेद हैं उतने ही उनके आवरण करने वाले
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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