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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। होता है इस लिये वीच वीचमें रुक जाता है, और पहले दर्शन होता है, फिर अवग्रह होता है, फिर ईहा फिर अवाय, फिर धारणा, इस तरह बहुतसे ज्ञान होने पर तब कहीं पूरा ज्ञान होपाता है इसलिये कठिन साध्य है। और भी दोषपरोक्षं तत्परायत्तादाक्ष्यमक्षसमुद्भवात् । सदोषं संशयादीनां दोषाणां तत्र संभवात् ॥ २८२॥ अर्थ-वह पराधीन होता है इसलिये परोक्ष है, इन्द्रियोंसे होता है इसलिये इन्द्रिय जन्य ( एक देश ) ज्ञान कहलाता है। फिर भी उसमें संशय विपर्ययादिक अनेक दोष आते हैं इसलिये वह ज्ञान सदोष है। और भी दोष । विरुद्धं बन्धहेतुत्वाद्वन्धकार्याच्च कर्मजम् ।। अश्रेयोऽनात्मधर्मत्वात् कालुष्यादशुचिः स्वतः ॥२८३॥ अर्थ-इन्द्रियज ज्ञान बन्धका कारण है इसलिये वह विरुद्ध है, वह बन्धका कार्य भी है इसलिये वह ज्ञान आत्मीय नहीं कहलाता, किन्तु कर्मसे होने वाला है, वह आत्माका धर्म नहीं है इसलिये आत्माको हानिकारक है और वह मलिन है इसलिये वह स्वयं अपवित्र है। और भी दोषमूर्छितं यदपस्मारवेगवद्वर्धमानतः। क्षणं वा हीयमानत्वात् क्षणं यावददर्शनात् ॥ २८४ ॥ अर्थ-वह ज्ञान मृगीरोगकी तरह कभी बढ़ जाता है और कभी घट जाता हैं, कभी दीखता है कभी नहीं दीखता इसलिये वह मूर्छित है । और भी दोष-- अत्राणं प्रत्यनीकस्य क्षणं शान्तस्य कर्मणः । जीवदवस्थातोऽवश्यमेष्यतः स्वरसंस्थितेः ॥ २८५ ॥ अर्थ-जो कर्म आत्माका शत्रु है, और जो क्षणमात्रके लिये शान्त भी हो जाता है, परन्तु अपनी सत्ता रखनेके कारण अवश्य ही अपने रसको देनेवाला है, ऐसे कर्मकी जीती हुई अवस्थासे वह ज्ञान रक्षा नहीं कर सक्ता । इन्द्रियज ज्ञानकी अज्ञतादिङ्मात्रं षट्सु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलम्भकात् । तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादस्ति स्थूलेषु केषुचित् ॥ २८६ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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