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________________ ( ११ ) सो aur aaओ सयकायपरिस्समं सुक्खं ॥ ३४ ॥ जुम्मं दुर्मिल ( सबैया ) | भ्रमके वशमें फँसि कूकर ज्यों, रसके हित अस्थि चबाबत है । निज श्रोणित चाखत मोद भरो, पर नेकु विवेक न लावत है ॥ नर हू वनिता तन सेवनतें, तनिक न कयूँ सुख पावत है । निज देह परिश्रमके मिसतें, सुखकी सठ भावना भावत है ॥३३-३॥१ सुविमग्गिजंतो कत्थवि कयलीइ णत्थि जह सारो । इंदियविसएस तहा णत्थि सुहं सुविगविहं ॥ ३५ ॥ दोहा । बहु विधि खोजत हू नहीं, रेम्भथम्भ में सार । तैसे इन्द्रियविषयसुख, जानहु सदा असार ॥ ३५ ॥ सिंगारतरंगाए विलासवेलाइ जुव्वणजलाए । के के जयंमि पुरिसा णारीणइए ण बुडुंति || ३६ || १ केलेका खंभ |
SR No.022372
Book TitleIndriya Parajay Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhulal Shravak
PublisherNirnaysagar Press
Publication Year1912
Total Pages38
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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