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________________ अवंदनीय पांच (1) पासत्थो - वेश साधु का रखे लेकिन क्रिया न करे साधु का आचार न पाले, उसे पार्श्वस्थ कहते है । (2) ओसन्नो - साधु की दश प्रकार की सामाचारी का पालन न करे, चातुर्मास से अतिरिक्त कालमें भी पाट का उपयोग करे, निष्कारण से आधाकर्मी आहार ग्रहण करे, उसे अवसन्न कहते है । (3) कुशील · ज्ञानाचार आदि की विराधना करे यंत्र, मंत्र, चमत्कार, जडीबुट्टी आदि करे, ज्योतिष, स्वप्न फल भाव तोल कहे, स्नान तेल मर्दनादि करे, शरीर शोभा बढाए वह कुशील साधु है । (4) संसक्त - मूल गुणो में दोष उत्पन्न करे, स्त्रीका सेवन करने वाला, तीन गारव से युक्त बुरी संगत रखनेवाला, संविग्न के पास रहनेपर उनके जेसा आचरण करे और पासत्थ आदि के पास रहने पर उनके जैसा बन जाय । (5) यथाछंद - अपनी बुध्धि से शास्त्रो के अर्थ करे, शास्त्र विरुध्ध बोले गृहस्थ के सावध कार्यों में भी भाग ले, कारण बिना विगई आदि का सेवन करे। वंदनीय - पांच (1) आचार्य - गच्छ के नायक, साधुओ के गुरू, ३६ गुणो से युक्त । (2) उपाध्याय - वर्तमान श्रुत के वेत्ता तथा साधुओ को शास्त्र का अध्यापन कराने वाले । (3) प्रवर्तक - साधुओ को क्रियाकांड में प्रवृत्ति कराने वाले | (4) स्थवीर - संयम से शिथिल होते हुए साधु को स्थिर करने वाले । ज्ञानस्थवीर · सुत्रकृतांग वेत्ता पर्यायस्थवीर - 20 वयस्थवीर - 60 वर्ष (5) रत्नाधिक - दीक्षा पयार्य में जो बड़े होते है । पदार्थ प्रदीप 0
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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