SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 चउरिन्द्रिय 1 वायुकाय औदा.वै.ते.का. 1 पं.तिर्यन्च . वायुकाय को भी वैक्रिय लब्धि होती, लेकिन उसका प्रयोग तो अनाभोग से ही होता है । देवादि मनमाना शरीर बना सकते है, नारक जीव अपनी इच्छा / उपयोग पूर्वक उत्तर वैक्रिय शरीर बनाते है, लेकिन भव स्वभाव से वह भी कुरूपा ही बनता है । । पृथ्वीकायादि के शरीर का प्रमाण सूक्ष्म वनस्पति का सबसे छोटा उससे सूक्ष्म वायुकाय का असंख्य गुण (बडा) उससे सूक्ष्म अग्नि का असंख्य गुण (बडा) उससे सूक्ष्म जल का असंख्य गुण (बडा) उससे सूक्ष्म पृथ्वी का असंख्य गुण (बडा) उससे बादर वायुकाय का असंख्य गुण (बडा) उससे बादर अग्निकाय का असंख्य गुण (बडा उससे बादर जल का असंख्य गुण (बंडा) उससे बादर पृथ्वी का असंख्यं गुण (बडा) उससे बादर निगोद का असंख्य गुण (बडा) उससे बादर प्रत्येक वनस्पति का असंख्य गुण (बडा) ( 1000 योजन से अधिक) सर्व जीवो का स्वाभाविक शरीर उत्पत्ति के समय अंगुल के असंख्य भाग जितना होता है (क्योंकि जीव आत्मप्रदेशो का संकोच करके ही मरता है) फिर कोयले में जैसे अग्नि का कण फेलता है, उसी प्रकार वृध्धि को प्राप्त करता है। पदार्थ प्रदीपX240
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy