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________________ सागारधर्मामृत [७ प्रगट हो रहे हैं ऐसे तत्त्वों के श्रद्धान करने रूप सम्यग्दर्शनसे जिनकी चेतना रूपी संपत्ति साफ दिखाई दे रही है ऐसे पशु भी मनुष्योंके ही समान हैं अर्थात् वे भी अपने आत्माका हित अहित विचार सकते हैं । अपि शब्दसे यह अर्थ निकलता है कि सम्यग्दर्शनके माहात्म्यसे जब पशु भी अपने हेय (छोड़ने योग्य) उपादेय (ग्रहण करने योग्य) तत्त्वोंको जानने लगते हैं तब मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शन ज्ञानका कारण है और मिथ्यादर्शनअज्ञानका कारण है ॥ ४ ॥ अर्थ-जिसमें शरीर संबंधी, मानसिक आगंतुक इस तरहके अनेक दुःख बारबार उत्पन्न होते हैं और जिसकी स्थिति स्वप्नके समान अथवा इंद्रजालके समान अस्थिर है ऐसे संसारसे भय उत्पन्न होना संवेग कहलाता है। ३-सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । ___धर्मस्य परमं मूलमनुकंपां प्रचक्षते ॥ अर्थ-अनेक योगियोंमें परिभ्रमण करनेसे सदा दुखी ऐसे समस्त प्राणियोंमें दया करना अर्थात् उनके दुखसे अपना चित्त दयासे भीग जाना, इसीको दयालु मुनि अनुकंपा कहते हैं। यही अनुकंपा | धर्मका मुख्य कारण है। ४-आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंयुतं । ____ आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्ति धरे नरे ॥ अर्थ-मोक्षमार्गाभिलाषी पुरुषमें आप्त अर्थात् हितोपदेशी सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर, शास्त्र, व्रत और जीवादि तत्त्वोंमें जो अस्तित्व बुद्धि है उसको आस्तिक पुरुष आस्तिक्य कहते हैं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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