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________________ ६] प्रथम अध्याय मूर्छित हैं और रलत्रयके प्रभावसे कोई नहीं भी हैं। यही प्रायः शब्द से सूचित होता है ॥ ३ ॥ आगे सागारपना होने का कारण विद्या अर्थात् सम्यक्त्व है तथा सागारपना न होनेका कारण अविद्या अर्थात् मिथ्यात्व है यही बात दिखलाते हैं नरत्वेपि पशूयं मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेपि नरायंते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥ ४ ॥ अर्थ – सब जीवों में मनुष्य यद्यपि हित अहितका विचार करनेमें चतुर हैं तथापि यदि उनका चित्त विपरीत श्रद्धान करने रूप मिथ्यात्व से भरा हुआ हो तो फिर उनसे हित अहितका विचार नहीं हो सकता, फिर वे पशुके समान हैं । अपि शब्द से यह सूचित होता है कि जव मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही पशुओं के समान हैं तब पशुओं की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार पशु हित अहितके विचार करनेमें चतुर नहीं हैं तथापि जिनमें 'प्रशम संवेग अनुकंपा और ४ आस्तिक्य ये गुण .f १ - रागादिषु च दोषेषु चित्तवृत्ति निवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तत्रतभूषिणम् ॥१॥ अर्थ — रागादि दोषोंमें अपने चित्तकी वृत्ति रोकना ही प्रशम है, यह प्रशम गुण सत्र गुणोंका भूषण है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । २- शरीरमानसागंतु वेदनाप्रभवाद्भवात् । स्वप्नेंद्रजालसंकल्पाद्भीतिः संवेग उच्यते ॥
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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