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________________ २३६ ] चौथा अध्याय हाथ आदिसे एक या दो वार मारना चाहिये । यद्यपि वध | शब्दका अर्थ प्राणघात होता है परंतु व्रती श्रावक प्राणघातका सर्वथा त्याग प्रथम ही कर चुका है इसलिये अतिचारों में ग्रहण किये हुये वध शब्दका अर्थ छडी आदिसे ताडन करना ही लेना चाहिये । इसप्रकार यह वध नामका अहिंसाणुव्रतका । दूसरा अतिचार है। छेद---नाक कान आदि शरीरके अवयवोंके काटनेको छेद कहते हैं । वे शरीरके अवयव यदि बुरे परिणामोंसे काटे | जायं तो अतिचार है । जैसे निर्दय होकर हाथ पैर आदि काट लेते हैं । यदि किसीके शरीरमें फोडा या गूमडा हो गया हो | और उसकी स्वास्थ्यरक्षा करने के लिये उसे चिरना या काटना पडे अथवा जलाना पडे तो आश्वासन देकर चीरना, काटना या जलाना भी अतिचार नहीं है, क्योंकि उसमें चीरने या काटनेवाले के परिणाम बुरे नहीं हैं। इसप्रकार यह तीसरा अतिचार है। अतिभारारोपण-बैल घोडा आदि पशु अथवा दास दासी आदिकी पीठपर अथवा सिर वा गर्दनपर उसकी शक्तिसे अधिक बोझा लादनेको अतिभारारोपण कहते हैं। वह भी यदि बुरे परिणामोंसे अर्थात् क्रोध वा लोभसे किया जाय तो अतिचार होता है । इसके पालन करनेकी भी यह विधि है कि श्रावकको दास दासी अथवा घोडा बैल आदिपर बोझा लादकर
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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