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________________ __ सागारधर्मामृत [२३१ की हिंसाका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिये । भावार्थ-योग्य भोगोपभोगोंके सेवन करनेमें जो एकेंद्रिय जीवोंकी हिंसा होती है वह तो गृहस्थसे छूट ही नहीं सकती परंतु जिसप्रकार वह त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करता है उसीप्रकार उन भोगोपभोगोंमें होनेवाली हिंसाके सिवाय जो स्थावर जीवोंकी हिंसा है उसका त्याग भी उस मोक्षकी इच्छा करनेवाले श्रावकको अवश्य कर देना चाहिये । यहांपर 'मोक्षकी इच्छा करनेवाले श्रावकको ' ऐसा जो लिखा है उसका यह अभिप्राय है कि भोगोपभोगोंकी इच्छा करनेवाले श्रावकके लिये उन भोगोपभोगोंमें होनेवाली हिंसाके सिवाय स्थावर नीवोंकी हिंसाके त्याग करनेका नियम नहीं हैं यह नियम केवल मुमुक्षु श्रावकके लिये है ॥ ११ ॥ स्तोकैकेंद्रियघाताद्गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणां। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयं ॥ अर्थ-इंद्रियोंके विषयोंकी न्यायपूर्वक सेवा करनेवाले श्रावकोंको काममें आनेवाले थोडे एकेंद्रिय जीवोंके धात करनेके सिवाय बाकी स्थावर जीवोंके मारनेका त्याग भी अवश्य करने योग्य है। भूपयः पवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनं । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तात्कुर्यादजंतुजित् ॥ अर्थ- अहिंसक श्रावकको जितनेमें अपना प्रयोजन हो उतनी ही पृथ्वी अप तेज वायु और वनस्पतिकायिक जीवोंकी हिंसा करनी चाहिये । भावार्थ-शेषका त्याग कर देना चाहिये । PRASADARP
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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