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________________ | २३०] चौथा अध्याय अर्थात् उठना बैठना रखना उठाना आदि क्रियाओंको देख शोधकर सावधानीसे करना चाहिये । कहा भी है-"गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् " अर्थात् घरके सब काम देखकर करना चाहिये कि जिसमें किसी जीवकी हिंसा न हो सके। तथा जिसप्रकार विना कारण एकेंद्रीय जीवोंकी हिंसा न होने देनेमें सावधानी रक्खी जाती है उसीप्रकार खेती व्यापार आदि आरंभ कार्योंसे होनेवाली हिंसामें भी समिति रखनी चाहिये अर्थात् उसमें भी ऐसे यत्नसे चलना चाहिये कि जिससे अधिक हिंसा न होने पावे ॥१०॥ आगे-स्थावर जीवोंकी हिंसा न करनेका उपदेश देते हैं यन्मुत्तयंगमहिंसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः । एकाक्षवधमप्युज्झेयः स्यान्नावय॑भोगकृत् ॥११॥ अर्थ-यह वात सिद्ध है कि द्रव्यहिंसा और भावहिंसाका त्याग करना ही मोक्षका साधन है इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले श्रावकको सेवन करने योग्य जिन भोगोपभोगोंका त्याग हो ही नहीं सकता अथवा जिनका संग्रह करना ही चाहिये ऐसे सेवन करने योग्य भोगोपभोगोंमें होनेवाली एकेंद्रिय जीवों की हिंसाको छोड कर बाकी बचे हुये 'एकेंद्रिय जीवों १-जे तसकाया जीवा पुवुद्दिठा न हिसिदव्वा ते । एगेंद्रियावि णिक्कारणेण पढमं वदं थूलं ॥ अर्थ-पहिले कहे हुये त्रस कायके जीवोंको नहीं मारना तथा विना कारणके एकेंद्रियादि जीवों को भी नहीं मारना सो पहिला स्थूलव्रत अर्थात् अहिंसा अणुव्रत हैं। -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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