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________________ wwwwwwwwwww सागारधर्मामृत [ १२५ | प्रभावना करनेवालेको समयद्योतक कहते हैं। मूलगुण और उत्तरगुणोंसे प्रशंसनीय ऐसे तप करनेवालेको नैष्ठिक' कहते हैं । धर्माचार्य अथवा उसीके समान बुद्धिमान गृहस्थाचार्यको गणाधिप कहते हैं। इन पाचोंतरहके पात्रोंको वालोंके विना दीक्षा यात्रा प्रतिष्ठा आदि क्रियायें कैसे हो सकेंगी और यदि उनके लिये अन्य धर्मियोंके पास जाओगे तो फिर अपने धर्मकी उन्नति कैसे होगी? १-लोकवित्त्वकवित्वाद्यैर्वादवाग्मित्वकौशलैः । मार्गप्रभावनोद्युक्ताः संतः पूज्या विशेषत :॥ अर्थ-जो लोक चातुर्य, कविता, तथा वाद उपदेश आदिकोंकी कुशलतासे जिनमतकी प्रभावना करनेमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे सजन पुरुषोंकी पूजा (आदरसत्कार). विशेषतासे करनी चाहिये। २--मूलोत्तरगुणश्लाघ्यैस्तपोभिनिष्ठितस्थितिः। साधुः साधु भजेत्पूज्यः पुण्योपार्जनपडितः । अर्थ-~-पुण्यके उपार्जन करनेमें चतुर लो गोंको मूलगुण और उत्तरगुणोंसे प्रशंसनीय ऐसे तपके करनेवाले साधुकी पूजा सेवा उत्तम प्रकारसे करनी चाहिये। .३-ज्ञानकांडे क्रियाकांडे चातुर्वर्ण्यपुरस्सरः। सूरिव इवाराध्यः संसाराब्धितरंडकः। अर्थ-ज्ञानकांड और क्रियाकांडके चलानेमें चारों वोंमें श्रेष्ठ ऐसे धर्माचार्य अथवा गृहस्थाचार्य संसाररूपी समुद्रसे पार करनेमें नावके समान हैं इसलिये देवके समान उनकी पूजा करनी चाहिये।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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