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________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvAA १२४ ] दूसरा अध्याय . आगे--धर्मपात्रों को उनके गुणों के अनुसार उन्हें तृप्त करना चाहिये ऐसा दिखलाते हैं-- समयिकसाधकसमयद्योतकनैष्ठिकगणाधिपान धिनुयात् । दानादिना यथोत्तरगुणरागात्सद्गृही नित्यं ।। ५१ ॥ अर्थ-जिनसमय अर्थात् जिनेंद्रदेवके कहे हुये शास्त्रों के आश्रय रहनेवाले अर्थात् शास्त्रोंकी आज्ञानुसार चलनेवाले मुनि अथवा गृहस्थोंको 'समयिक कहते हैं । ज्योतिष मंत्रवाद आदि संसारी लोगोंके उपकार करनेवाले शास्त्रोंके जाननेवालेको साधक कहते हैं । वादविवाद आदि कर अपने मोक्षमार्गकी १-गृहस्थो वा यातर्वापि जैनं समयमाश्रितः । यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभि : ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टी श्रावकको देशकालके अनुसार जैनधर्मको धारण करनेवाले और यथायोग्य समयपर अपने घर आये हुये मुनि अथवा गृहस्थका आदरसत्कार करना ही चाहिये । २-ज्योतिर्मत्रनिमित्तज्ञः सुप्रज्ञः कार्यकर्मसु । मान्यः समथिभिः सम्यक् परोक्षार्थसमर्थधीः ॥ अर्थ-ज्योतिःशास्त्र, मंत्रशास्त्र, शकुनशास्त्र, 'वैद्यकशास्त्र आदि शास्त्रोंको जाननेवाले तथा परोक्ष (दूर वा छिपे हुये) पदार्थोंको जाननेवाले और कार्य करनेमें चतुर ऐसे लोगोंका भी श्रावकको यथायोग्य आदर सत्कार करना चाहिये अर्थात् उसे दान और मान देना चाहिये । क्योंकि दक्षिायात्राप्रतिष्ठाद्याः क्रियास्तद्विरहे कुतः । तदर्थे परपृच्छायां | कथं च समयोन्नतिः ॥ अर्थ-ज्योतिःशास्त्र मंत्रशास्त्र आदि जानने
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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