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________________ ६२] mamman दूसरा अध्याय तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कंदीव यात्यापदं तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति ॥५॥ अर्थ-जिस 'मद्यके पनिके बाद ही उस मद्यके रसमें उत्पन्न हुये अथवा जिनके समूहोंसे मिलकर वह मद्यका रस बना है ऐसे अनेक जीवोंके सब समूह उसी समय मर जाते हैं, तथा काम, क्रोध, भय, भ्रम अर्थात् मिथ्याज्ञान अथवा चक्र के समान :शरीरका फिरना, अभिमान, हास्य, अरति, शोक आदि निंद्य और पाप बढानेवाले परिणाम र उत्पन्न होते हैं। १ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यं । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यं ॥ अर्थ-मद्य रससे उत्पन्न हुये बहुतसे जीवोंकी योनि अर्थात् उत्पन्न होनेका स्थान है । इसलिये जो मद्यका सेवन करते हैं उनके उन जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है। समुत्पद्य विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल। मद्ये भवंति कालेन मनोमोहाय देहिनां ॥ अर्थ-मद्यमें अनेक जीव उत्पन्न होते और मरते रहते हैं और समय पाकर वे जीव उस मद्यके पीनेवालोंके मनको मोह उत्पन्न करते रहते हैं । __ मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्म । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति ॥ अर्थ-मद्य मनको मोहित करता है तथा मोहितचित्तघाला पुरुष धर्मको भूल जाता है और धर्मको भूलाहुआ जीव नीडर होकर हिंसा करता है। २-अभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ॥ अर्थ-आभमान, भय, ग्लानि,
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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