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________________ - सागारधर्मामृत [६१ यदेकबिंदोः प्रचरंति जीवाश्चेत्तत् त्रिलोकीमपि पूरयति । यद्विक्लवाश्चेमममुं च लोकं यस्यति तत्कश्यमवश्यमस्यत् ॥४॥ अर्थ-जिसकी एक बूंदमें उत्पन्न हुये जीव निकलकर यदि उडने लगें तो उनसे ऊर्ध्वलोक मध्यलोक और अधोलोक ये तीनों ही लोक भरजायं इसके सिवाय जिसके पानसे मोहित हुये जीव इस भव और परलोक दोनों लोकोंका सुख नष्ट करते हैं दोनों भवोंको दुःखस्वरूप बना देते हैं ऐसा जो मद्य है उसका अवश्य त्याग करना चाहिये । अपने आत्माका हित चाहनेवाले पुरुषको मद्य न पीनेका दृढ नियम लेना चाहिये ॥४॥ आगे--मद्य पीनेसे द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनोंतरहकी हिंसा होती है यह कहकर उसके त्याग करनेवालेको क्या क्या लाभ होते है और उसके पनेिवालोंको क्या क्या हानि होती है अथवा इसके त्याग करने और पीनेमें क्या क्या गुण दोष हैं इसीको दृष्टांतद्वारा स्पष्टरीतिसे दिखलाते हैं पीते यत्र रसांगजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियतेऽखिलाः । कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यति च । विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात्प्रवीयते सर्वे तृण्या वन्हिकणादिव ॥ अर्थ-जैसे आमिका एक ही कण तृणोंके समूहको नाश कर देता है उसीतरह मद्य पीनेसे विचार, संयम, शान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, आदि समस्त गुण उसीसमय नष्ट हो जाते हैं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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