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________________ प्राकथन प्रत्येक मनुष्य सुख की अभिलाषा करता है और उसकी प्राप्ति के लिए यत्नशील भी रहता है। जबकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बाह्य एवं ऐन्द्रिक है वह अपने दैनिक जीवन में अपनी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दृश्य जगत के आपाततः प्रतीयमान स्वरुप से ही संतुष्ट रहा करता है। जीवन में कठिनतम परिस्थितियों के आगमन पर ही उसके मन-कुहर में समस्याओं का जन्म होता हैं । इन्हीं समस्याओं के निराकरण के क्रम में वह विभिन्न महान् आत्माओं की शरण में जाता है अथवा उनके द्वारा विरचित ग्रन्थों के आधार पर उनके जीवन-चरित्र तथा इनके सिद्धांतों का अवलोकन करता है । प्रस्तुत निबंध इसी प्रकार की प्रेरणा का परिणाम है। भारतीय दर्शनों में कतिपथ प्रश्नों एवं उनके समाधान का दिग्दर्शन हमें स्पष्ट ढंग से प्राप्त होता है। अतएव प्रबुद्ध समाज में लौकिक और लोकोत्तर अनेक सार्थक-निरर्थक सभी बातों पर चिन्तन की प्रवृत्ति उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती। यह लोक क्या है? इसकी उत्पत्ति कैसे, क्यों और कब हुई? यह सादि है या अनादि? कृत है या अकृत? फिर इसमें जीव की सत्ता कैसी है? ज्ञान क्या है? आत्मा और ज्ञान का संबंध एकत्व का है अथवा अन्यत्व का? इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख क्या है? द्रव्य, गुण तथा पर्याय क्या है? इनका संबंध कैसा है? मोक्ष क्या है तथा इसके साथन क्या है? इत्यादि अनेक ऐसे प्रश्न उठते हैं जिनके उत्तर की खोज से दार्शनिक चिन्तन तथा सत्य की अनुभूति के लिए साथनामय जीवन प्रकट होता है। अति प्राचीन काल से ही भारतीय महार्षियों, यतियों, मुनियों एवं श्रमणों ने अपने समस्त जीवन को ऐसे किसी परम सत्य की खोज एवं उपलब्धि में लगा दिया जिनकी अनुभूतियों में सभी समस्याओं का समाहार और समाधान तो प्रकट हुआ ही, उनके अनुसरण से जीवन की परमपूर्णता भी सम्भावित हुई। ऐसे ही परम मनीषियों में अहिंसावतार चरम तीर्थकर भगवान महावीर भी एक थे, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन संसार के परम सत्य की खोज में लगा दिया और अन्ततः संसार-सागर का मंथन कर सृष्टि के आधार-भूत सत्य की खोज कर अध्यात्मवाद को नया स्वर दिया जिसे मुखरित करने का कार्य उमास्वाति ने किया। ऐसे जैनागम-मर्मज्ञ आचार्य उमास्वाति के वैराग्य विषयक अपूर्व ग्रन्थ प्रशमरति प्रकरण को मैंने शोध-प्रबन्थ का विषय बनाया जो मूर्त रुप पाकर बिहार विश्वविद्यालय की पी० एच० डी० शोथोपाधि के योग्य सिद्ध हुआ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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