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________________ 59 तीसरा अध्याय होता है, आत्मा में अच्छी तरह धारण किये गये उस व्यापार को संवर कहते है, जिसे तीर्थकारों ने जीव के लिए परमहितकारी माना है। इस प्रकार का चिन्तन करना संवर-भावना है 18। निर्जरा-भावना : आश्रव के द्वारों के बन्द हो जाने पर तप के द्वारा पूर्व बंधे हुए कर्मों का क्षय होता है, ऐसा चिन्तन करने को निर्जरा-भावना कहते है 19। जैसे बढ़ा हुआ विकार भी प्रयत्न करने एंव लंघन से नष्ट हो जाता है, वैसे ही संसार से युक्त मनुष्य इकठे हुए कर्म को तपस्या से क्षीण कर डालता है। जिस प्रकार बढ़ा हुआ भी अजीर्ण खाना बन्द करके लंधन करने से प्रतिदिन क्षय होता है, इसी प्रकार संसार में भ्रमण करते हुए ज्ञानावरणादि कर्म से बंधा हुआ जीव चतुर्थ, अष्टम, द्वादश आदि तपो के द्वारा वे नीरस हो जाते हैं। और बिना फल दिये वे कर्म मसले गये कुसुम के फूल की तरह आत्मा से झड़ जाते हैं 20 । लोक-भावना : ___ यह जीव अनादिकाल से ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, एवं मध्यलोक में भ्रमण करता है, इत्यादि लोक के स्वरुप के विचारने को लोक विस्तार-भावना कहते हैं। अर्थात् समस्त लोक में मैं जन्मा और मरा हूँ तथा सभी रुपी द्रव्यों का मैने उपभोग किया है, फिर भी मेरी तृप्ति नहीं हुई है, इस प्रकार प्रतिसमय विचार करना हितकारी है 21 । स्वाख्यात धर्म-भावना : ___ भव्य जीवों के कल्याण के लिए उत्तम क्षमादि दस लक्षण रुप धर्म अच्छा कहा गया है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यात-भावना है 22 अर्थात् कर्मरुपी शत्रुओं के जैसा तीर्थंकरों द्वारसंसार कल्याण के लिए इस आगमत्य और उत्तम क्षमादि लक्षण युक्त-धर्म का निर्दोष कथन किया गया है, इसमें जो अनुरक्त होते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को आनायास ही पार कर जाते हैं। धर्म के मार्ग पर चलने से ही मनुष्य आत्म-कल्याण कर सकता है। जब तक धर्म के पथ पर नहीं चलता, उसका अनादि संसार-परिभ्रमण के चक से छुटकारा नहीं हो सकता । अतः आत्म-कल्याण के लिए धर्म का चिन्तन करना उपादेय है 23 । दुर्लभबोधि-भावना :.--- . -. मनुष्य जन्म, कर्मभूमि, आर्यदेश, कुल, नीरोगता और आयु पाने पर भी सम्यग्ज्ञान का पाना दुर्लभ है, ऐसा विचारने को बोधि दुर्लभ भावना कहते हैं24 ।यदि सैकड़ों भवों में किसी तरह सम्यग्ज्ञान का लाभ प्राप्त हो जाय तो भी देश चारित्र एवं सकल चारित्र पाना अत्यंत कठिन है 25 | इस प्रकार यदि सकल चारित्र रुप रत्न प्राप्त भी हो जाय फिर भी इन्द्रिय, कषाय, परीषह रुपी शत्रुओं से व्याकुल मनुष्य के लिए वैराग्य-मार्ग को जीतना अत्यन्त दुलर्भ
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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