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________________ 27 दूसरा अध्याय पारिणामिक भाव : यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है, क्योंकि यह औपशमिकादि भाव कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय से नहीं होते हैं। ये भाव कर्मजन्य नहीं हैं। इसीलिए इस भाव को अनादि, अनन्त, स्वाभाविक, निरुपाधि एव ज्ञायिक माना गया है 14। औपशमिक भाव : ___ कर्मों के उपशम से जो भाव होता है, उसे औपशमिक भाव कहा जाता है 15 । इसके दो भेद हैं-(क) औपशमिक सम्यकत्व (ख) औपशमिक चारित्र 161 क्षायिक भाव : ___ कर्मों के क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है, उसे क्षायिक भाव कहा जाता है।17 इसके नौ भेद बतलाये गये हैं 18 - क्षायिक दर्शन, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, दानलब्धि, लाभ लब्धि, सम्यक्त्व और चारित्र। क्षायोपशमिक भाव : - कर्मों के क्षयोपशम से जो भाव उत्पन्न होता है, उसे क्षयोपशमिक भाव कहते हैं 19। इसके अट्ठारह भेद बतलाये गये हैं 20 मति-अवधि-मनः पर्यय- चार प्रकार का ज्ञान, कुमति - कुश्रुत-कुअवधि-तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन- अचक्षुदर्शन एवं अवधि दर्शन - तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपयोग, वीर्यरुप पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र एवं संयमासंयम। सान्निपातिक भाव : ___ उक्त पाँच भावों के अतिरिक्त एक छठा भाव और भी है, जिसे सान्निपातिक भाव कहते हैं। यह कोई स्वतंत्र भाव नहीं है, किन्तु संयोगज भाव है। इस प्रकार पाँच भावों के संयोग से जो भाव उत्पन्न होता है, उन्हे सान्निपातिक भाव कहते हैं 21। इसके छब्बीस भेद हैं- दो संयोगी दस, तीन संयोगी दस, चार संयोगी पाँच और संयोगी एक । इनमें से ग्यारह भाव विरोधी होने के कारण त्याज्य हैं और शेष पन्द्रह भाव अविरोधी हैं, इसलिए ये भाव ग्राय हैं 22। जीव के भेद : जीव के मुख्यतः दो भेद हैं- (क) मुक्त एवं (ख) संसारी 23 । इसमें मुक्त जीव के भेद-प्रभेद नहीं होता है, क्योंकि यह जीव समस्त कर्मों से मुक्त होता है। इसलिए मुक्त जीव भेद रहित है 241
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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