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________________ 15 प्रथम अध्याय प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष में समानदर्शी, धर्मध्यानी, प्रशमगुणरत्न समूह से सुशोभित, सूर्य-समान तेजस्वी साधु ही शील के सम्पूर्ण अंगों का थारक होता है (238-244)"। 16. शीलांगानि अधिकार : ___ इस ग्रन्थ का सोलहवाँ अधिकार शीलांगानि अधिकार है। इसमें शील के अट्ठारह हजार अंगों की उत्पत्ति का कथन कर बतलाया गया है कि शील-समुद्र-पारगामी धर्मध्यानी साधु को वैराग्य की प्राप्ति होती है (245-247)45 । 17. ध्यानाधिकार : __इस ग्रन्थ का सतरहवाँ अधिकार ध्यानानिअधिकार है। इसमें धर्म ध्यान के आज्ञाविचय, अपाय विचय, विपाक विचयं और संस्थान विषय-चार भेदों के स्वरुप का कथन किया गया है और परम्परा से धर्मध्यान का विशेष फल बतलाया गया है (248-250) 46 । 18. क्षपक श्रेणीअधिकार : . इस ग्रन्थ का अट्ठारहवाँ अधिकार क्षपक श्रेणी अधिकार है। इसमें क्षपक श्रेणी का विस्तार पूर्वक कथन कर बतलाया गया है कि तृष्णा-जेता, स्वाध्याय-ध्यान में तत्पर, कल्याणमूर्ति साधु अनेक ऋद्धियों से युक्त अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर आठ कर्मों के नायक मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। इसके बाद वह शेष कर्मों का क्षय करके अन्तर्मुहूर्त काल तक छद्मस्थ वीतरागी रहकर ज्ञान-दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्म का समूल नाश करके सर्वोत्कृष्ट केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार. केवल ज्ञानी घातिया कर्म का क्षय कर बैदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र-अघातिया कर्मों का अनुभव करता है (251-272)471 19. समुद्धाताधिकार : ____ इस ग्रन्थ का उन्नीसवाँ अधिकार समुद्धाताधिकार है। इसमें यही बतलाया गया है कि केवली के वेदनीय आदि कर्म की स्थिति आयु कर्म से अधिक होने के कारण उन्हें समुद्धात करना पड़ता है। वे समुद्धात से निवृत होकर योग का निरोध करते हैं। (273-276) 48 । 20. योग-निरोधाधिकार : ___ इस ग्रन्थ का बीसवाँ अधिकार योग-निरोधाधिकार है। इसमें योग-निरोथ की रीति का निर्देश कर बतलाया गया है कि केवली को योग-निरोथ करते समय सूक्ष्म क्रिय अप्रतिपाति एवं विगत क्रिय नामक शुक्ल ध्यान होता है और अंतिम भव में जिस केवली की जितनी आकार और उँचाई होती है, उससे उसके शरीर की आकार और उँचाई एक तिहाई कम हो जाती है (277-281) । इस प्रकार योग निरोध होने पर केवली संसाररुपी समुद्र से पार करता हुआ व्युपरत क्रिया निवर्ति ध्यान के समय शैलशी अवस्था को प्राप्त करता है। (282-283)491
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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