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________________ प्रथम अध्याय आचार्य उमास्वाति का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी ही निर्धारित किया जा सकता है जिसे पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री आदि विद्वान् भी मानते हैं। अतः इनका समय विक्रम की तीसरी शताब्दी है। कृतित्वः उमास्वाति ने जैन वाङ्गमय को कितनी अमूल्य कृतियों से सम्वर्थित किया, इस विषय में निश्चयपूर्वक कहना संभव नहीं है। लेकिन तत्वार्थसूत्र और तत्वार्थाधिगम भाष्य के विषय में कोई विवाद नहीं है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार जम्बु-द्वीप-समास भी उमास्वाति की कृति है 24 । तत्वार्थसूत्र के वृत्तिकार सिद्धसेन ने अपनी वृत्ति में इनके शोधप्रकरण नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख किया है 25 जो उपलब्ध नहीं है। पंडित सुखलाल संघवी का मत है कि उमास्वाति ने जम्बु-द्वीप समासप्रकरण, पूजा प्रकरण, श्रावक प्रज्ञप्ति, क्षेत्र विचार, प्रशमरतिप्रकरण आदि 500 ग्रन्थों की रचना की है 26। किन्तु आज हमारे सामने सभाष्य तत्वार्थाधिगमसूत्र एंव प्रशमरति प्रकरण ही उपलब्ध है। उपर्युक्त प्रमाण के आधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रशमरति प्रकरण आचार्य उमास्वाति की अनुपम कृति है जिसका विस्तारपूर्वक विवेचन अपेक्षित है। . .. प्रशमरतिप्रकरण ग्रन्थ का परिचय : प्रशमरति प्रकरण नामक मूलग्रन्थ तत्वार्थसूत्र आदि के साथ विब्लियोथिका इण्डिका में सन् 1904 में तथा एक अज्ञात्-कर्तृक टीका के साथ जैन धर्म प्रसारक सभा की ओर से विक्रम संवत 1966 में प्रकाशित की गई है। एक अन्य अज्ञात-कर्तृक टीका और ऐ० वेलिनी के इटालियन अनुवाद के साथ प्रस्तुत कृति जरनल आफ दि इटालियन एसिएटिक सोसाइटी, खंड-२५ में छपी है। इसके साथ ही 1800 श्लोक परिमाण की एक टीका जयसिंह राज्यान्तर्गत अणहिल पाटन नगर में विक्रम सम्वत् 1185 में श्री धवल मांडआलिका के पुत्र यशोनाग नायक के द्वारा अर्पित किये गये उपाश्रय में हरिभद्र ने लिखी है तथा यहीं पर संशोधन भी की है। इसके अतिरिक्त दो अज्ञात-कर्तुक टीकाएँ भी है जिसमें से एक की हस्तलिखित प्रति १४६८ की मिलती है। हरिभद्रीय टीका की प्रशस्ति ३ से ज्ञात होता है कि इसके पहले भी दूसरी टीकाएँ लिखी गयीं थी जो बड़ी थीं। किसी ने इस पर अवचूर्णि भी लिखी है जिसे भी देवचन्द लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने हरिभद्रीय वृत्ति एवं अज्ञातकर्तृक अवचूर्णि के साथ यह कृति वि० सं० 1996 में प्रकाशित की है। इसके अलावे कपूर विजय कृत गुजराती अनुवाद के साथ प्रस्तुत कृति को जैनधर्म प्रसारक सभा ने वि० स० 1988 में प्रकाशित की है। इसके साथ ही प्रो० राजकुमार शास्त्री ने हिन्दी में टीका लिखी है जो मूल एवं हरिभद्रीय टीका के साथ (प्रथम संस्करण) श्री रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बम्बई में ई० सन् 1950 में ही प्रकाशित हो चुकी है ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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