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________________ प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन विक्रम संवत् 101 आता है। पट्टावली में बतलाया गया है कि उमास्वाति 40 वर्ष 8 महीने आचार्य पद पर रहे। इनकी आयु 84 वर्ष की थी और विक्रम संवत्।42 में इनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। (2) विद्वज्जन पोषक में उद्धृत एक श्लोक के अनुसार वे कुन्दकुन्द के समकालीन थे तथा इनका समय वीर निर्वाण संवत् 770 (विक्रम संवत् 300) था 16। (3) प्रो० हार्नले, डॉ पिटार्सन और डॉ. सतीश चन्द्र ने आचार्य उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का आचार्य माना है । (4) डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने बहुत उहापोह के पश्चात् कुन्दकुन्द के समय का निर्णय किया है। इनके अनुसार कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग है। कुछ विद्वानों का मत है कि आचार्य उमास्वाति कुन्दकुन्द के शिष्य हैं। अतः उमास्वाति का समय भी ईसा के प्रथम शताब्दी के लगभग है 18। (5) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अनेक तर्कों के आधार पर आचार्य उमास्वाति का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी के अन्त में माना है । (6) डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने पट्टावलियो, प्रशस्तियों और अभिलेखों का अध्ययन कर आचार्य उमास्वाति का समय ई० सन् की द्वितीय शताब्दी निश्चित किया है 20 । (7) पं० नाथूराम प्रेमी ने आचार्य उमास्वाति के समय-निर्धारण के लिए अनेक तर्क उपस्थित किये हैं। इन्होंने इनका समय ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी माना है 211 - (8) प्रसिद्ध जर्मन पंडित हैल्मूर ने अपने जैनिज्म नामक ग्रन्थ में इनका समय ईसा की चौथी-पांचवी सदी होने की अधिक संभावना व्यक्त की है 22 । श्वेताम्बर मान्यता : श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् तत्वार्थभाष्य को सूत्रकार उमास्वाति की रचना मानते हैं। परन्तु, भाष्य की प्रशस्ति में इनके समय का उल्लेख नहीं किया गया है और समय का निर्धारण करनेवाला अबतक दूसरा भी कोई साधन प्राप्त नहीं हुआ है। ऐसी ही स्थिति में पं० सुखलाल संघवी ने तत्वार्थसूत्र की हिन्दी भूमिका में आचार्य उमास्वाति के समय के संबंध में विशद विवेचन कर इनका समय प्राचीनतम काल विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीनतम काल तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित किया है । इस लम्बे काल व्यवधान के बीच उमास्वाति का सुनिश्चित काल-अनुसंधान की अपेक्षा रखता है। उपर्युक्त दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वानों के मतों का अध्ययन करने से मैं भी इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि उमास्वाति का समय ई० सन् द्वितीय के बाद नहीं निर्धारित किया जा सकता, क्योंकि इनके पहले किसी भी जैनाचार्य ने संस्कृतभाषा में सूत्रग्रन्थ की कोई भी रचना नहीं की है। जबतक इससे कोई अन्य सबल प्रमाण उपस्थित नहीं होता, तबतक
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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