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________________ अयोगव्यवच्छेदः कठिन हो रहा है; तथापि, शिष्यजनोंकी प्रार्थनासें, और श्रीहेमचन्द्रसूरिजीकी भक्तिके मिससें किंचिन्मात्र अर्थ लिखते हैं । अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् । श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपमहंस्तुतेर्गोचरमानयामि ॥१॥ व्याख्या : (अहं) मैं हेमचन्द्रसूरि (श्रीवर्द्धमानाभिधम्) श्री वर्द्धमानं नाम भगवंतकों (स्तुतेः) स्तुतिका (गोचरम्) विषय (आनयामि) करता हूं. कैसा है श्री वर्धमान भगवंत (अध्यात्मविदाम्) अध्यात्मवेत्तायोंके (अगम्यम्) अगम्य है, अर्थात् अध्यात्मज्ञानीभी जिसका संपूर्ण स्वरूप नही जान सकते हैं । जो आत्माका, मनका और देहका, यथार्थ स्वरूप जानते हैं, तिनकों अध्यात्मवित् कहते हैं । तिनोंकेभी ज्ञानकरके श्रीवर्द्धमान भगवंतका स्वरूप अगम्य है । तथा (वचस्विनाम्) वचस्वी पंडितकों कहते हैं, मन:पर्यायज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, गणधरादि सर्व शास्त्रोंका वेत्ता। ऐसें सद्बुद्धिमान् सर्व पापोंसें दूर वर्त्तनेवाले ऐसें पंडितोंके वचनों करके श्रीवर्द्धमान भगवंतका स्वरूप (अवाच्यम्) अवाच्य है, अर्थात् ऐसें पंडितभी जिनका संपूर्ण स्वरूप नही कह सकते हैं । क्योंकि, श्रीवर्द्धमान भगवंत अनंतस्वरूप गुणवान् है; और छद्मस्थके तो ज्ञानमेंही वे सर्वगुण नही आ सकते हैं तो, तिन सर्वका स्वरूप कथन करना तो दूरही रहा। तथा (अक्षवताम्) नेत्रोंवालोंके (परोक्षम्) परोक्ष है; यद्यपि संप्रति कालके नेत्रोंवालोंके तो भगवंतका स्वरूप देखना परोक्षही है; परंतु भगवंतके जीवनमोक्षके समयमें भी नेत्रोंवालोकेभी श्री भगवंतका स्वरूप परोक्षही था। क्योंकि, समवसरणमें भी बिराजमान भगवंतका अनंत गुणात्मक स्वरूप, नेत्रोंवाले नही देख सकते थे । तथा कैसे है
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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