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________________ २६ अयोगव्यवच्छेदः सात निह्नव, और अष्टमबोटिक महा निह्नव, इनोंने किंचिन्मात्र विप्लव करना चाहा था, तोभी, तिनका करा किंचिद् विप्लव न हुआ, शासनसें बाह्य तिनकों श्री संघने तत्काल कर दीए, इसवास्ते तेरे शासनमें पूर्वोक्त विप्लव नही हुआ है। इस वास्ते (अहो) बडाही आश्चर्य है कि, (तव) तेरे (शासनश्रीः) शासनकी लक्ष्मी (अधृष्या) अधृष्य है, अर्थात् कोईभी तिसकी धर्षणा नही कर सक्ता है।। १६ ।। ___ अथ परवादीयोंने जे जे अपने अपने मतके अधिष्ठाता स्वामीभूत देवते कथन करे है, तिनमें जे जे अघटित परस्पर विरुद्ध बातें हैं, वे, स्तुतिकार दिखाते हैं। देहाद्ययोगेन सदा शिवत्वं शरीरयोगादुपदेशकर्म । परस्परस्पर्धि कथं घटेत परोपक्लप्तेष्वधिदैवतेषु ॥ १७ ॥ व्याख्या-(देहाद्ययोगेन) देहादिके अयोगसें, अर्थात् देह, आदि शब्दसें राग, द्वेष, मोहादि सर्व कर्म जन्य उपाधिके अभावसें (सदा) निरंतर (शिवत्वं) शिवपणा, सत्चित्आनंदरूप परम ब्रह्म परमात्मा परम ईश्वरपणा है; और (शरीरयोगात्) शरीरके योगसें संबंधसेही (उपदेशकर्म) उपदेश कर्म है, अर्थात् देहवाला ईश्वर होवे तबही उपदेष्टा हो सक्ता है; यह दोनो बातें (परस्परस्पर्धि) परस्पर विरोधि (कथं) किसतरें (परोपक्लुप्तेषु) परवादीयोंके माने हुए (अधिदैवतेषु) अधिदेवतायोंमें (घटेत) घटती हैं ? अपितु किसी प्रकारसेभी नही घट सक्ती हैं क्योंकि, परवादीयोंने अनादि मुक्तरूप, निरुपाधिक, निरंजन, निराकार, ज्योतिःस्वरूप, एक ईश्वर, सर्व व्यापक माना है; ऐसा ईश्वर किसी प्रकारसेंभी उपदेष्टा सिद्ध नही हो सक्ता है। उपदेश करनेके
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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