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________________ अयोगव्यवच्छेदः ऐसेंही श्री सिद्धसेनदिवाकर गच्छाधिप है, और मैं तिनका (बालक) बच्चा हूं। जिस रस्तेपर वे चले हैं, मैंभी तिसही रस्तेमें रहा हुआ, अर्थात् तिनकी तरहही स्तुति करता हुआ, ...... स्खलायमानभी होजावं, तोभी शोचनीय नही हूं । अथाग्रे श्रीहेमचंद्रसूरि अयोग व्यवच्छेदरूप भगवंतकी स्तुति रचते हैं। जिनेंद्र यानेव विबाधसे त्वं दुरंतदोषान् विविधैरुपायैः । त एव चित्रं त्वदसूययेव कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः ॥ ४ ॥ .. व्याख्या- हे जिनेंद्र! (यानेव) जिनही (दुरंतदोषान्) दुरंतदूषणोंकों (विविधैः) विविध प्रकारके (उपायैः)) उपायों करके (विबाधसे) तुम बाधित करते हुए हैं, अर्थात् जिन दुरंतदूषण राग, द्वेष, मोहादिकोंको नाना प्रकारके संयम, तप, ज्ञान, ध्यान, साम्यसमाधि, योग लीनतादि उपायों करके दूर करे है; (चित्रम्) मुझकों बडाही आश्चर्य है कि, (त एव) वहीं दुरंतदूषण (परतीर्थनाथैः) परतीर्थनाथोंने (त्वदसूययेव) तेरी असूया करकेही (कृतार्थाः) कृतार्थ (कृताः) करे हैं, अर्थात् अच्छे जानके स्वीकार करे हैं; सोही दिखाते हैं। . __ हे भगवन् ! प्रथम रागकों तैने दूर करा; तिस रागकोंही परतीर्थनाथोंने स्वीकार करा है। क्योंकि, राग का प्रायः मूल कारण स्त्री है, सो तो, तीनही देवने अंगीकार करी है। ब्रह्माजीने सावित्री, शंकरने पार्वती, और विष्णुने लक्ष्मी। और पुत्र पुत्रीयां साम्राज्य परिग्रहादिकी ममताभी सर्व देवोंके तिनके शास्त्रोंके कथनानुसारही
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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