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________________ अनंताक्षरात्मानं पुस्तकार्थमनुस्मरन् । संशोध्य पुस्तकं तच्च वाग्मंत्रण प्रतिष्ठयेत्॥१०७॥ ध्यात्वा यथास्वं गुर्वादीन्न्यस्येत्तत्पादुकायुगे।निषेधिकायां संन्याससमाधिमरणादि च १०८ यक्षादिप्रतिविवेषु यंत्रं प्राय॑ च विन्यसेत्।ग्रहे तार्कोदये ध्यायन् जात्यादीन् यक्षकर्दमम्१०९ सिद्धचक्रादिपत्रादिप्रतिष्ठाप्येवमूह्यताम् । ग्राह्यः प्राणो ग्रहश्चेदोः शांते क्रूरे च भास्वतः॥११०॥ इति प्रतिष्टेयलक्षणम् । जिसका ऐसी सरस्वती देवीकी पूजामें अंग, पूर्व (चौदह पूर्व ) प्रकीर्णक ( बाह्य अंग ) स्वरूप अनंत अर्थ अक्षर स्वरूप शास्त्राकार रचना कराके और उस शास्त्रको सुधवाके सरस्वतीमंत्रसे उसकी प्रतिष्ठा करे । यह शास्त्रप्रतिष्ठा हुई ॥ १०६।१०७ ॥ अब गुरुकी || प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विधि कहते हैं;-निर्ग्रथादि गुरुओंका ध्यान करके और उनके संन्यास माधि) मरणकी छतरी ( एक तरहका मट) वनवाके उनके चरण युगल (दो ) वनावे ॥१०८॥यक्षांदिप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठामें पंचवर्णके चूर्णसे लिखे यंत्रको सूर्योदयमें चमेली आदिके पुष्पोंसे पूजे और ध्यावे ॥१०९॥ पत्रपर लिखे हुए सिद्धचक्र यंत्र तथा आदि शब्दसे जंबूद्वीप त्रैलोक्य श्रुतस्कंध नंदीश्वर आदि लिखे यंत्रोंकी भी प्रतिष्ठा इसी तरह जानना चाहिये। १ कर्पूरमगुरुश्चैव कस्तूरी चंदनं तथा । ककोलं च भवेदभिः पंचभिर्यक्षकर्दमम् ॥ २ अनावृतादि यक्ष पद्मावती || यक्षीकी प्रतिमा । ३. कपुर अगुरु कस्तूरी चंदन कंकोल-इन पांचोंको पीसके बनाया गया चूर्ण । कन्स
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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