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________________ . . - - पूर्वपूजितचक्राग्रे न्यस्य ध्यात्वा च तन्मयम् । तत्पक्षालनमादाय तत्स्थाने न्यस्य तेन तत५९४ संस्नाप्य सुमुहुर्तेतर्भूतत्वे विस्तीडया । मूलमंत्रं प्रजपते स्थापयेच्चंदनगुना ॥ ६ ॥ ततोऽभिषिच्य संपूज्य महार्पणाभिराध्य तत् । कुर्याच्छेषविधिनित्यं पूजयेच्च तदादि तत् । ६१।। चित्रादिर्वा प्रतिष्ठायामपि योज्योल्पशो विधिः। स एवाकरशुद्धयादिविधिः कुर्यात्तु दर्पणे६२॥ अक्षादिस्थापना त्वद्य जिनादीनां न कारयेत् । प्रायो लोकः कलौ क्षुद्रः कल्पयत्यन्यथा हि ताम् एकाशीतिपदं पार्च्य स्थाप्यमहत्स्वभाद्यपि । लोकं जिनादि तचैत्यं निचितांशत्तु संस्मरेत्॥६४| एवं व्याससमासदर्शनपरं स्वोपज्ञधर्मामृत ग्रंथांगं जिनयज्ञकल्पमकरोदाशाधरः श्रेयसे । उसके वाद जिसका यंत्र हो उसके मूलमंत्रका जाप करे । जाप करनेके वाद अभिषेक पूर्वक उस यंत्रकी पूजा करे । इसतरह प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये ॥ ५९ । ६०।६१॥ चिबाम आदिकी अभिषेकविधि दर्पणमें प्रतिविबिंत करके करनी चाहिये ॥ ६२ अर्हत आदि । मूर्तिकी तदाकार स्थापना करनी चाहिये । क्योंकि कलियुगमें मिथ्याती पुरुष विपरीत यही कल्पना कर डालते हैं । इसलिये चौपड़की तरह मूर्तिकी अतदाकार स्थापनाका ! निषेध किया गया है ॥ ६३ ॥ पूर्वकथित इक्यासी पत्रोंका यंत्र पूजाकर प्रतिमाकी स्थापना करनी योग्य है ॥ ६४ ॥ इसप्रकार विस्तारसे तथा संक्षेपसे जिनप्रतिष्ठा आदिकी ब्लन्कन्छ
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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