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________________ १६ 0000 सद्विधारसमुद्गिरंतु कवयो नामाप्यधः स्यात्तु मा प्रार्थ्यं वा कियदेक एव शिवकृद्धर्मो जयत्वईताम् ॥ २० ॥ एतेत्मार्थपरा शक्राः छत्रचामरशालिनीम् । भृंगारहस्ता मुक्तांबुधारापूतपुरो धराम् ॥ २१ ॥ जिनाचमनुयांतोग्रे प्रनृत्यत्कलशांगनाः । महान् तूर्यस्वनैर्भव्यजयकोलाहलोल्वणैः ।। २२ ।। | पूरयंतो दिशः सप्तधान्यपुष्पाक्षतादिभिः । कल्पयंतो बाल शांत्यै त्रिःपरीयुर्जिनालयम् २३ इति बलिविधानम् । 1 | अथाचार्योऽभिषेक्तव्यः फलपुष्पाक्षतद्युतः । जिनगंधांबुकुंभेन यष्ट्रे दद्यात्तदाशिषम् ||२४|| तद्यथा । आयुस्तन्वंतु तुष्टिं विदधतु विधुनंत्वापदो मंतु विधान कुवैत्वारोग्यमुर्वी बलया विलासितां कीर्तिवल्लीं सृजंतु । वढे, न्याय मार्ग पर चलनेवाला राजा हो, कविजन उत्तम विद्यारसको प्रगट करें, पापका नाम भी न रहे, अन्य विशेष प्रार्थना क्या करें संसारमें एक मोक्षको दाता जैनधर्मकी ही जय हो । | ॥ २० ॥ आत्मकल्याण करनेमें लीन, छत्र चमर लिये हुए, स्वच्छ जलसे भरी झाड़ीको हाथमें लिए हुए, जिनमूर्तिके आगे नृत्य करते हुए इंद्र, सात तरहके धान्य पुष्प अक्षत आदि पूजा द्रव्यसे पूजा करते हुए जिनमंदिरकी तीन परिक्रमा दें ॥ २१ २२ २३ ॥ यह वलिविधान हुआ । उसके बाद प्रतिष्ठाचार्य गंधोदक अक्षत पुष्प फल दीप धूपसे प्रतिष्ठाविधि करनेवाले
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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