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________________ सौंषधिचंदनपंचमृद्भिर्विलिप्य तीर्थोदकपंचकेन । विशोध्य पीठं जिनमज्जगर्भे गर्नोपमेस्मिन्नवतारयामि ॥२७॥ तामेव रहसि पुरा निरूपितप्रतिष्ठेयामहत्प्रतिमां नूतनसितनसितसद्वस्वप्रच्छादितां पुरस्सरटंकिकाकरविश्वकर्मसौधर्मेन्द्रौ महोत्सवेनानीय सुविशुद्धभद्रासनगर्मपद्मे निवेशयेतां । यो गंगांबुसुरत्नपुष्पकृतभूपस्कारामंद्रासनद्रकूपं प्रमदाकुलीकृतजगद्गर्भ प्रविश्योत्तमे । लगे वामतिरंजयन् रविरिह प्राची परानुग्रह ग्राहोद्यवृतिवर्द्धतेस्म सुदृशां सोऽयं जिनस्तन्मुदे ॥२८॥ ओं णमोहते केवलिने परमयोगिने शुक्लध्यानग्निनिर्दग्धकर्मेन्धनाय सौम्याय शांताय वरदाय ह गर्मशोधन और दिकुमारियोंकी सेवाविधि स्थापन कीजाती है । सर्वोषधि चंदन । आदिसे सिंहासनको पवित्रं करके कारीगर और सौधर्मेंद्र दोनों उत्तम वस्त्रसे ढकी हुई है। प्रतिष्ठेय प्रतिमाको महान उच्छवके साथ लाकरं शुद्ध सिंहासनके भीतर कमलपत्रमें 2 स्थापित करें ॥ २७ ॥ उसके वाद “ यो गंगां" इत्यादि तथा “ ओंणमो " इत्यादि बोलकर कुंकुसे रंगे हुए चमेलीके पुष्प तथा अक्षतोंको मूलनायक और दूसरी प्रतिमाओंके ९ ऊपर क्षेपण करे ॥ २८ ॥ गर्भावतार विधि कहते हैं । "दृक् " इत्यादि दो श्लोक बोलकर है
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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