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________________ तत्रारोप्यकशोनादिसिद्धमंत्रेण मंत्रयेत्। ततस्तन्न्यासदेशेषु मूतश्रीखंडकुंकुमम् ॥ ३६॥ | क्षित्वा प्रागेकमुक्षिप्य क्षेत्रगर्भे न्यसेत्तथा । पृथक्कोणेषु चतुरस्तेतः पंच शिलाः पृथक् ॥३७॥ जिनादिमंत्रैरध्यास्य सुलग्ने तेषु विन्यसेत् । ततः प्रतोष्य शिल्प्यादीन् स्वक्षेत्रे भ्रामयेदलिम् ३८ । पाठबंधेप्यसावेव विधिः कृत्स्नो विधीयताम् । विकुंभो देहलीपद्मशिलयोश्च निवेशने ॥३९॥ इति पाठबंधादित्रयप्रतिष्ठाविधानम् । भीतर (सिंहासनके पास ) इस तरह पांच शिला अथवा पकी हुई इंटे रक्खे । उसके ऊपर शुभ लग्नमें पांच तांवेके कलशोंको क्रमसे रखे उनके अंदर सर्वोषधी, पांच तरहके रत्नोंसे | मिला हुआ नदी या कुएका जल भरा रहना चाहिये और घड़ोंके रखनेके स्थानपर पाराघिसा हुआ चंदन कुंकु रखे और सबको अनादिसिद्ध जिनादि(णमोकार)मंत्रसे मंत्रित करे ।। उसके बाद कारीगरोंको द्रव्यादिसे प्रसन्न करके अपने मंडल के आगे पूजाकरे ॥ ३५ ॥ ३६॥ ४॥ ३७ ॥३८॥ इस प्रकार जिनादि मंत्र तथा शिला रखनेकी विधि पूर्ण हुई । वेदीके बांधनेमें ) (रचनामें ) भी यही विधि करनी चाहिये और देहलीकी शिला तथा वेदीकी कमलाकार : गुमठीकी शिलाके रखनेमें भी पूर्वकथित विधि करनी चाहिये । परंतु देहलीके दरवाजे की तथा गुमठीकी कमलाकार शिलाके पिछले भागमें जया आदिके देवियोंकर सहित १ ओं हाँ नमोऽईद्भ्यः स्वाहा, ओं ह्रीं नमः सिद्धेभ्यः स्वाहा, ओं हूँ नमः सूरिभ्यः स्वाहा, ओं ह्रौं नमः पाठशकेभ्यः स्वाहा, ओं हः नमः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा । जिनादिमंत्राः खरशिलानिवेशनं ।
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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