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________________ प्र०सा भाटी अ०२ 00000000000 शचीकटाक्षेषु शरव्यशक त्वमेत्य विघ्नौघविघातहेतो करस्फुरद्वजरजोभरेण कोणेषु वज्राणि लिखाद्य वेद्याः ॥ १५१ ॥ वेदाकोणेषु प्रत्येकं हीरकं न्यसेत् । वज्रस्थापनम् । इति यागमंडलवर्तनविधानम् ।। इत्याम्नायनिरस्तमोहतिमिरः सम्यग्जिनेज्यादिभिः काचिद्भावविशुद्धिमाप्य विधिभिः सौधर्मभावं भजन । कृत्वा मंडलपूजनं वितनुते योत्पतिष्ठाविधिः सोत्रामुत्र च मोदते शुभनिधिः स्तुत्यः शिवाशाधरैः॥१५२ ॥ इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनान्न तीर्थोदकादानादिविधानीयो ___ नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ इत्यादि बोलकर वेदीके कोनोंमें हीरे रत्नका स्थापन करे ॥ १५१ ॥ इस तरह यागमंडल हाविधान कहा है। इस प्रकार गुरुआम्नायसे सब जानकर भावोंको निर्मल कर अपनेको सौधर्म समझता हुआ जो प्रतिष्ठाचार्य मंडल पूजन आदिसे अहंतकी प्रतिष्ठाविधिका सब जगह प्रचार करता है वह पुण्यका खजाना प्रतिष्ठाचार्य दोनों लोकमें सुख पाता है और मोक्षके चाहनेवाले भव्योंसे अथवा मुझ आशाधरसे पूजित होता है ॥ १५२ ॥ इस प्रकार पं० आशाधरविरचित प्रतिष्ठासारोद्धारमें तीर्थोदक लाने आदिको कहनेवाला दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥ २॥ ॥४७॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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