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________________ PR8888888888888888888888888888888888 प्रमाण कहलाता है। आचावर्य श्री सुशीलसूरीश्वर ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में न्याय-मीमांसा-सांख्य-बौद्धादि दर्शनों की मान्यता का प्रदर्शन-विमर्श करते हुए प्रमुख रूप से जैनसिद्धान्त की बात ही 'प्रमाण' के सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक कही है - प्रमाणं हि तदेव कथितं निजान्यव्यवसायकम्। दीपो यथा निजं रूपं द्योतयत्यपरस्य च॥ जैन सि.कौ.१७६ प्रमाण के भेद 88888888888888888888888888888888888888888888888888 प्रमाण की संख्या के सन्दर्भ में दार्शनिकों में प्रर्याप्त मतभेद हैं। जैन दर्शन ने मुख्यत: दो ही प्रमाण स्वीकार किये हैं - १. प्रत्यक्ष। २. परोक्ष। प्रत्यक्ष प्रमाण __यथार्थता के क्षेत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों का स्थान समान है, न्यूनाधिक नहीं। दोनों अपने-अपने विषय में समान बल रखते हैं किन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से दोनों में अन्तर है। प्रत्यक्ष ज्ञप्तिकाल में स्वतंत्र होता है जबकि परोक्ष साधनपरतन्त्र। फलत: प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यवहित साक्षात् 2 सम्बन्ध होता है और परोक्ष का व्यवहित अर्थात् माध्यमों द्वारा 2 होता है। 888888888888888888888888888888888888888888880) 88888888888888888888888888888888 * • बीस ।
SR No.022355
Book TitleJain Siddhant Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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