SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 888888888888888888888888888888 इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर भूत भविष्यत् वर्तमान तीनों कालों सर्व पदार्थों के सभी पर्यायों का 'प्रत्यक्ष' होता है। आत्मा के ज्ञान की यह चरम सीमा है। यही श्रेष्ठतम ज्ञान है। प्रमाण श्रुतज्ञान की उपलब्धि मूलतः दो प्रकार से होती है आगम से तथा प्रमाणनयादि से। अल्पज्ञ पुरुष का ज्ञान आवृत होता है। अत: उसे सर्वज्ञोक्त ज्ञान का पूर्णत: निर्णय नहीं हो पाता है । तत्त्वार्थतः पदार्थों के परिज्ञान के लिए उसे प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है। 'प्रमाण' के सन्दर्भ में विद्वानों ने कई व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत की हैं१. प्रमाकरणं प्रमाणम् अर्थात् प्रमायाः करणम् प्रमाणम् । २. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते - परिच्छिद्यतेज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाणम् । ३. स्व - पर व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । जो प्रमा (जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा मानना का करण निकटतम साधन है - उसे प्रमाण कहते हैं ।) - - प्रकर्ष रूप से संशय-विपर्यय - अनध्यवसाय दोषरहित वस्तु तत्त्व का यथार्थ ज्ञान प्रमाण कहलाता है । स्व-पर-व्यवयायिज्ञान 8888888888888888888888 D • उन्नीस
SR No.022355
Book TitleJain Siddhant Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy