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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ग्रन्थ का पूर्वार्द्ध ईस्वी सन् १६३७ में शाह हीरालाल सोमचन्द मुम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया था तथा उत्तरार्द्ध भाग १६५४ में श्रुतज्ञान अमी धारा ज्ञानमंदिर बेड़ा (मारवाड़) द्वारा प्रकाशित किया गया है। दोनों भागों में १००० से भी अधिक पृष्ठ है। व्याकरण का यह महाग्रन्थ उपाध्याय विनयविजय के उत्कृष्ट वैयाकरण होने का बोध कराता है। भारतीय व्याकरण शास्त्र के इतिहास में हैमशब्दानुशासन की तो गणना की जाती है, किन्तु उसके साथ ही हैमलघुपक्रिया एवं हैमप्रकाश की भी गणना आवश्यक प्रतीत होती है। सम्प्रति पाणिनीय व्याकरण के ही पठन-पाठन का अधिक प्रचलन है, किन्तु शोधार्थियों एवं विशेष जिज्ञासुओं के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। 6. रास एवं फागु काव्य __ जैन परम्परा में रास साहित्य एवं फागु साहित्य का राजस्थानी एवं गुजराती भाषा में भी ग्रंथन हुआ है। इनकी मिश्रित भाषा को कुछ विद्वान् 'मरु-गुर्जर' भी कहते हैं। विनयविजय गणी ने इन दोनों विधाओं में एक-एक कृति की रचना की है। रास शैली में उन्होंने 'श्रीपाल राजानो रास' कृति का तथा फागु शैली में 'नेमिनाथ भ्रमर-गीता' का निर्माण किया है। (1) श्रीपालराजानो रास- जैन परम्परा में मन्दिरों में किसी चरित्र को लेकर नृत्य एवं गान पूर्वक जो अभिव्यक्ति दी जाती है उसे रास कहा जाता है। श्रीपालराजानो रास में श्रीपाल राजा का कथानक चित्रित है। मालवा के राजा की दो पुत्रियाँ थी- सुरसुन्दरी और मयणासुन्दरी (मैनासुन्दरी)। मैनासुन्दरी की अपने कृत कमों में आस्था थी, उसका अपने पिता से विवाद होता रहता था। अतः राजा ने रोष में आकर उसका विवाह उस श्रीपाल के साथ कर दिया जो ७०० कोढियों का मुखिया था। किन्तु मैनासुन्दरी की धर्म में प्रबल आस्था थी। उसने प्रभु भक्ति एवं नवपद सिद्धचक्र की आराधना की। श्रीपाल को भी इस आराधना में साथ लिया। इससे श्रीपाल रोग मुक्त हो गया। इस कथा को मुख्य आधार बनाकर श्रीपाल राजानो रास की रचना की गई है। इस कथानक से अपने कृत कमों का एवं धर्म की साधना का फल अवश्य मिलता है यह प्रतिपादन किया गया है। ___ विनयविजयगणी ने इस रास की रचना प्रारम्भ की थी एवं ७५० पद्य गुजराती (मरु-गुर्जर) भाषा मे रचे थे। किन्तु संयोगवश विक्रम संवत १७३८ में रांदेर चातुर्मास में इसकी रचना करते हुए उनका स्वर्गगमन हो गया। फिर उनके गुरुभ्राता एवं सहाध्यायी उपाध्याय यशोविजय गणी ने इस रास को पूर्ण किया। इस तरह से यह कृति इन प्रमुख दो सन्तों की संयुक्त रचना है। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप इन नवपदों के प्रति श्रद्धा एवं इनकी आराधना के फल का प्रतिपादन इस रचना का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। यह समग्र रास चार खंडों में विभक्त है। इसमें कुल ४० ढाल और १२५०
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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