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________________ 14 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन 9. चारित्रिक विशेषताएँ उपाध्याय विनयविजय जी पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि आवश्यक साध्वाचार का पालन करने के साथ विनयशीलता, कृतज्ञता, सरलता, अध्यवसायशीलता आदि अनेक चारित्रिक गुणों से समन्वित थे। उनकी विनयशीलता का परिचय उनकी कृतियों में श्रद्धापूर्वक अपने गुरू कीर्तिविजय जी एवं आचार्य परम्परा के उल्लेख से प्राप्त होता है। उनकी कृतियों में स्तवन भी उनकी विनयशीलता एवं सद्गुणों के प्रति भक्ति की परिचायक है। विनयविलास, वृषभतीर्थपति स्तवन, पट्टावली सज्झाय, नेमिनाथ बार मासी, जिनचौबीसी आदि कृतियाँ उनकी विनयशीलता को चारित्रिक गुण के रूप में अभिव्यक्त करती है। जिस साधु समुदाय के साथ में रहे उसमें भी आपने विनयपूर्वक आचरण कर अपने नाम को चरितार्थ किया। इसीलिए उनके गुरुभ्राता उपाध्याय यशोविजयजी ने उनकी प्रशंसा में कहा था विद्या विनय विवेक विचक्षण लक्षण लक्षित देहा जी। सोभागी गीतारथ सारथ संगत सखर सनेहा जी।। विनयशीलता के साथ आपमें कृतज्ञता का स्वाभाविक गुण था। एक बार आप खंभात चातुर्मास में व्याख्यान फरमा रहे थे। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण का वहां प्रवेश हुआ उन्हें देखकर उपाध्याय श्री जी अपने पाट पीठ से नीचे उतरे तथा वृद्ध ब्राह्मण का स्वागत कर उन्हें आगे लाए। इस घटना से सभी लोग अचम्भित थे। वह वृद्ध ब्राह्मण काशी में उनके विद्यादाता गुरु रहे थे। विनयविजय जी के विद्यागुरु के प्रति इस व्यवहार से उनकी विनयशीलता और कृतज्ञता अभिव्यक्त होती है। __विनयविजय जी में सरलता का विशेष गुण था। वे अपने द्वारा की हुई भूल को स्वीकार करने के लिए तत्पर रहते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि वे तपोगच्छ के उपगच्छ देवसूरगच्छ को छोडकर किन्हीं परिस्थितियों में आणसूरगच्छ में चले गए। वहां कुछ वर्षों तक रहने के पश्चात् आपको अपनी की हुई भूल का अनुभव हुआ तथा जोधपुर चातुर्मास वि.सं.१७१८ के समय उस भूल का परिमार्जन करने के लिए आपने देवसूरगच्छ के तत्कालीन आचार्य विजयप्रभसूरि जी को 'इन्दुदूत' काव्य की रचना कर अपना संदेश प्रेषित किया कि वे अपने त्रुटि को स्वीकार कर पुनः देवसूरगच्छ में आना चाहते हैं। इन्दुदूत काव्य के माध्यम से जब उनकी विज्ञप्ति तत्कालीन आचार्य विजयप्रभसूरि के पास पहुंची तब उन्होंने विनयविजय जी को पुनः अपने गच्छ में सम्मिलित होने की स्वीकृति दी एवं उनकी इस सरलता पर प्रमोद की अभिव्यक्ति की। उनकी चारित्रिक विशेषताओं में उनकी एक प्रमुख विशेषता थी अध्यवसायशीलता। वे
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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