SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पल्योपम है। किसी अपेक्षा से जघन्य स्थिति एक सौ दस या एक सौ है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो से लेकर नौ पल्योपम तक है। * 182 पच्चीसवां द्वार : दृष्टि-विमर्श जगत् में दृश्य पदार्थों को देखने पर उनके प्रति जो समझ अथवा विवेकबुद्धि या अविवेक बुद्धि उत्पन्न होती है वह दृष्टि है। यह दृष्टि कर्म पुद्गलों के आवरण से कभी मिथ्या बन जाती है, उसके क्षयोपशम से मिश्र स्वरूपा बन जाती है तथा उसके क्षय से सम्यक् स्वरूपा बन जाती है। अतः दृष्टि त्रिविधा कही गई है" - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि । सम्यग्दृष्टि का तात्पर्य है जो वस्तु जिस रूप में है उसे ठीक उसी रूप में समझना अर्थात् अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा समझना। रात को रात और दिन को दिन समझना । इसी तरह समझता हुआ जीव जिस दिन बुराई को बुराई समझ लेगा तब वह सम्यग्दृष्टि बन जायेगा। लोकप्रकाशकार कहते हैं जिनोक्ताद्विपर्यस्ता सम्यग्दृष्टिर्निगद्यते । सम्यकत्वशालिनां सा स्यात्तच्चैवं जायतेंऽगिनाम् । । अर्थात् जिन भगवन्तों के वचनानुसार, जरा भी विपरीत आचरण नहीं करने वाला सम्यग्दृष्टि कहलाता है। मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य है यथार्थ वस्तु को अयथार्थ समझना । अर्थात् अच्छे को बुरा समझना और बुरे को अच्छा समझना। उपाध्याय विनयविजय मिथ्यादृष्टि के सम्बन्ध में कहते हैंमिथ्यादृष्टिर्विपर्यस्ता जिनोक्ताद्वस्तुतत्त्वतः । सा स्यान्मिथ्यात्वनां तच्च मिथ्यात्वं पंचधा मतम् । । " अर्थात् जिन भगवन्त द्वारा कथित वस्तु स्वरूप से विपरीत रूप में आचरण करना मिथ्यादृष्टि है। जिनोक्त तत्त्वों में रुचि और अरुचि दोनों भावों का न होना अर्थात् तत्त्वज्ञान को सम्यक् न समझना और असम्यक् भी न समझना, यह दृष्टि मिश्र दृष्टि कहलाती है। उपाध्याय विनयविजय के अनुसार जिनोक्त तत्त्वों में राग-द्वेष भाव का न होना मिश्रदृष्टि है। मिश्रदृष्टि को एक उदाहरण से स्पष्ट करते हैं कि जैसे नारियल की अधिकता वाले द्वीप में रहने वाले को अनाज के प्रति राग अथवा द्वेष नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार तत्त्व के प्रति राग-द्वेष का भाव न रहना ही मिश्र दृष्टि कहलाती है सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वधारी प्राणियों को और मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वी को होती है। सम्यग्दृष्टि
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy