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________________ 181 जीव-विवेचन (3) से मैथुन की अभिलाषा भावरूप वेद है। स्त्री द्वारा पुरुष की अभिलाषा करना स्त्रीवेद है, पुरुष द्वारा स्त्री की अभिलाषा करना पुरुषवेद है और स्त्री-पुरुष दोनों की अभिलाषा करना नपुंसकवेद होता है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा सभी जीव तीनों वेद वाले होते हैं और यथाक्रम से विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं। अर्थात् कभी द्रव्य से पुरुष होता हुआ भी भाव से स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भी भाव से पुरुष हो सकता है। द्रव्यवेद और भाववेद प्रायः देव, नारकियों और अकर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में समान होते हैं। अर्थात् यदि द्रव्य से पुरुष है तो भाव से भी पुरुषवेद होगा तथा यदि द्रव्य से स्त्री है तो भाव से भी स्त्रीवेद ही होगा। परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच इन दो गतियों में वेदों की विषमता होती है। अर्थात् द्रव्यवेद से पुरुष होकर भाववेद से पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक तीनों प्रकार का हो सकता है। इसी प्रकार द्रव्य से स्त्री और भाव से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक तथा द्रव्य से नपुंसक वेद और भाव से पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक हो सकता है। इस प्रकार की विसदृशता होने से कर्मभूमि में द्रव्य और भाव वेद का कोई नियम नहीं है।" लोकप्रकाशकार ने तीनों वेदों को उपमा देकर उपमित किया है कि पुरुषवेद तृण की अग्नि के समान है, स्त्रीवेद गोबर के कंडे की अग्नि के समान है और नपुंसकवेद नगर दाह की अग्नि के समान होता है- 'तृणफुफुमकद्रंगज्वलनोपमिता इमे।'२ एकेन्द्रियादि जीवों में वेद- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में नपुसंकवेद अप्रकट रूप में होता है और बादर एकेन्द्रिय जीवों में कामवासना नपुंसकवेद के रूप में होती है। इसी प्रकार तीन विकलेन्द्रियों", सम्मूर्छिम तिर्यचपंचेन्द्रिय", सम्मूर्छिम मनुष्य एवं समस्त नारकी जीवों में नपुंसकवेद होता है। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद होता है। गर्भजतिर्यचपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य में तीनों वेद होते हैं। असंख्यात आयुष्य वाले (अर्थात् युगलिक मनुष्य) मनुष्य को पुरुषवेद और स्त्रीवेद ये दो वेद ही होते हैं। गर्भज मनुष्य अवेदी भी हो सकता है अर्थात् कामवासना का क्षय मात्र गर्भज मनुष्य में ही होता है। अल्पबहुत्व- संख्या की अपेक्षा से सबसे अल्प पुरुषवेद जीव, उससे संख्यातगुणा स्त्रीवेद जीव, इससे अनन्तगुणा अवेदी सिद्ध जीव और इससे अनन्त गुणा अधिक नपुंसकवेद जीव एवं सबसे अधिक सवेदी जीव है। स्थिति- पुरुषवेद की कायस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम है। स्त्रीत्व की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौदह पल्योपम या अठारह
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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