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________________ जीव-विवेचन (2) 153 संज्वलन माया कहलाती है। लोभ चतुष्क- किसी भी उपाय से दूर न होने वाला अत्यन्त तीव्रतम लोभ कृमिरागवत् अनन्तानुबंधी लोभ, कठिनता से शुद्ध होने वाला लोभ अक्षमल के समान अप्रत्याख्यानावरण लोभ, बाह्य निमित्तों के मिलने से सरलता से दूर होने वाला भाव पांशुलेप के समान प्रत्याख्यानावरण लोभ एवं अल्प समय तक हृदय में अवस्थित रहने वाला हारिद्र से रंगे हुए वस्त्र के समान चतुर्थ प्रकार का संज्वलन लोभ होता है। प्रज्ञापना सूत्र एवं लोकप्रकाश में कषायों के आश्रय के आधार पर अन्य चार भेद इस प्रकार किए गए हैंआत्मप्रतिष्ठित स्वदुश्चेष्ठितः कश्चित् प्रत्यापायमवेक्ष्य यत्। कुर्यादात्मोपरि क्रोधं स एषः स्वप्रतिष्ठितः ।। २६० जब मनुष्य अपने दोषों को जानकर दुःखी होता है और स्वयं पर क्रोध करता है तब वह क्रोध आत्मप्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है। परप्रतिष्ठित उदीरयेद्यदा क्रोधं परः सन्तर्जनादिभिः। तदा तद्विषयक्रोधो भवेदन्यप्रतिष्ठितः ।। जो कषाय अन्य मनुष्य के द्वारा उत्पन्न होता है वह परप्रतिष्ठित कषाय कहलाता है। उभयप्रतिष्ठित यश्चात्य परयोस्तादृगपराध कृतो भवेत्। ___ क्रोधः परस्मिन् स्वर्मिश्च स स्यादुभयसंश्रितः ।।२६२ जब कभी किसी दोष के कारण मनुष्य को स्वयं पर और दूसरे पर क्रोध उत्पन्न होता है तब वह उभयप्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है। अप्रतिष्ठित बिना पराक्रोशनादि विना च स्वकुचेष्टितम् । निरालम्बन एव स्यात् केवलं क्रोध-मोहतः ।। जब कोई क्रोध अन्य व्यक्ति के निमित्त के बिना स्वयं के निमित्त के बिना क्रोध मोहनीय के उदय से उत्पन्न होता है तो वह क्रोध अप्रतिष्ठित क्रोध कहा जाता है। स्वयं के दुराचार से रहित होने से आत्मप्रतिष्ठित नहीं होता, दूसरे के प्रतिकूल व्यवहार से उत्पन्न न होने से परप्रतिष्ठित नहीं कहलाता और दोनों कारण न होने से उभयप्रतिष्ठित भी नहीं कहलाता है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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