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________________ 152 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ___मल्लधारी हेमचन्द्रसूरि ने विशेषावश्यक भाष्य पर वृत्ति लिखते हुए स्पष्ट किया है कि पूर्णतः सावद्ययोग विरति का आशय है स्वयं सावध क्रिया न करना, दूसरों से सावध क्रिया न करवाना तथा किसी अन्य के द्वारा सावध क्रिया करने पर उसका समर्थन न करना। इस प्रकार के पूर्ण सावधक्रिया विरति को सर्वविरति कहते हैं, यह प्रत्याख्यानावरण इस सर्वविरति को आवरित करने से प्रत्याख्यानावरण कहलाता है।" संज्वलन- सम्+ज्वलन् अर्थात् समीचीन रूप से यथाख्यात चारित्र को जो क्रोधादि कषाय बाधित करते हैं अर्थात् जिन कषायों के उदय से आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती है वे कषाय संज्वलन कषाय कहलाते हैं। यह कषाय सर्व पाप कार्यों से विरक्त एवं संविग्न पंचमहाव्रतधारी साधु के विशुद्ध संयम-प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है तथा उन्हें प्रज्वलित अर्थात् उत्तेजित करता है।२५६ ___ वीरसेनाचार्य (विक्रम की स्वीं शती) और कर्मप्रकृतिकार अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि कषाय को दृष्टान्त सहित बताते हैं। वीरसेनाचार्य के कषायपाहुड की चूर्णि में वृषभाचार्य ने विस्तार से उल्लेख किया है णग पुढवि-वालुगोदयराजिईसरियो चउव्विहो कोहो। सेलघण-अट्ठि-दारुअ-लदासमाणो हवदि माणो।।" क्रोधचतुष्क- काल की अपेक्षा से क्रोध चतुर्विध है। दीर्घकाल स्थायी (जन्म-जन्मान्तर तक) रहने वाला नगराजि सदृश अनन्तानुबन्धी क्रोध, गुरु के उपदेश आदि बाह्य निमित्तों से दूर होने वाला पृथ्वी पर बनी रेखा के समान पृथ्वीराज सदृश अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और बालू रेत पर बनी रेखा के समान बालुकाराजि सदृश प्रत्याख्यानावरण क्रोध एवं सबसे अल्प काल में शान्त होने वाला जल में खींची रेखा के समान उदकराजि सदृश अन्तिम संज्वलन क्रोध होता है। मानचतुष्क- गुरु के उपदेश आदि बाह्य निमित्तों से दूर न होने वाला कोमलता रहित शिला स्तम्भ समान अनन्तानुबन्धी मान, कुछ कोमलता वाला अस्थिवत् अप्रत्याख्यानावरण मान, प्रयत्न से कोमल होने वाला काष्ठ समान प्रत्याख्यानावरण मान और शीघ्रता से दूर होने वाला संज्वलन मान होता है। माया चतुष्क- बांस वृक्ष के जड़ की कुटिलता के समान किसी भी उपाय से दूर न होनेवाली वंशमूलादि के समान प्रथम अनन्तानुबंधी माया, बाह्य निमित्तों से कुटिलता का अल्पांश रूप से दूर होने वाली मैंढे के सींग समान द्वितीय प्रकार की अप्रत्याख्यानावरण माया, भविष्य में गुरु के उपदेश आदि से सरल बनने वाली तृतीय प्रत्याख्यानावरण माया और अवलेखनी (जिह्वा का मैल साफ करने वाली जीभी) के समान अल्पकाल में ही दूर होने वाले कम कुटिलता के भाव चतुर्थ प्रकार की
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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