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________________ 149 जीव-विवेचन (2) 'छेदस्पृष्ट' कहते हैं। संहनन के अधिकारी सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय, देव और नारकी के संहनन सम्भव नहीं हैं, क्योंकि इन जीवों में अस्थियों का अभाव होता है। संहनन की 'अस्थि निचयात्म' परिभाषा के अनुसार ही ये चारों प्रकार के जीव असंहननी है। जीवाजीवाभिगम सूत्र में कहा है 'छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी, णेव छिरा, णेव ण्हारु, णेव संघयणमत्थि जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता, अप्पिया, असुभा, अमणुण्णा, अमणामा ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति। २२० अर्थात् छह प्रकार के संहननो में से एक भी संहनन नारकों के नहीं है, क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डी है, न शिरा है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं। जीवाजीवाभिगम के उपर्युक्त सूत्र से स्पष्ट है कि नारकों के संहनन नहीं होता है। इसी आगम के अनुसार एकेन्द्रिय जीवों के सेवार्त्त संहनन भी कहा गया है, क्योंकि उनके औदारिक शरीर होता है। उस शरीर की अपेक्षा से ही औपचारिक सेवार्त्त संहनन निरूपित है। उपाध्याय विनयविजय और संग्रहणीकार भी इसी मत के समर्थक हैं।२३२ देवों और नारकों के संहनन नहीं होता है, जबकि प्रज्ञापना सूत्र में देवों को वज्रऋषभनाराचशरीर संहनन वाला कहा गया है, क्योंकि देवों के कार्य करने में शारीरिक श्रम और थकावट नहीं होती है इस दृष्टि से उपचार से उन्हें वज्रसंहननी कहा है। विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) जीव७३, सम्मूर्छिम तिर्यचपंचेन्द्रिय और सम्मूर्छिम मनुष्य तीनों के सेवार्त्त शरीर संहनन होता है। गर्भज तिर्यंचपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य के छहों प्रकार के संहनन होते हैं। __इस प्रकार संहननों के स्वरूप को लेकर जैन दार्शनिकों में परस्पर मतभेद हैं, किन्तु यह स्पष्ट है कि इनका सम्बन्ध शरीर की अस्थियों से है एवं ये संहनन औदारिक शरीरधारी जीवों के ही होता है। इसीलिए वैक्रियशरीरधारी देवों एवं नारकियों के कोई संहनन नहीं होता है। बीसवांद्वारः कषाय-विवेचन कष का अर्थ है कर्म या संसार। जो संसार या कर्म की आय कराता है वह कषाय है। कषाय के फलस्वरूप एकेन्द्रियादि जीव विभिन्न परिणामों से परिणमित होते हैं। जिनभद्रगणि कषाय के तीन व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं जो इस प्रकार हैं१. कर्म, कष एवं भव एकार्थक हैं, जिससे कष अर्थात् भव या कर्म की आय होती है वह कषाय है। २२८
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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