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________________ 148 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अस्थियों के अन्त भाग पर्यन्त में कील के होने को कीलिका शरीर संहनन मानते हैं। वीरसेनाचार्य के अनुसार शरीर में जब हड्डियाँ और कीलें ही होती हैं तब वह कीलिकाशरीर संहनन होता है। सेवार्त्त संहनन 'अस्थ्नां पर्यन्तसम्बन्धरूपं सेवार्त्तमुच्यते । २२० ____अर्थात् जिस शरीर में हड्डियाँ परस्पर अन्तिम भाग से केवल मिली हों वह सेवार्त्त संहनन है। सेवा अर्थात् अभ्यंगन या लेप द्वारा हड्डी का जोड़। अतः जिसमें हड्डी का केवल जोड़ हो वह सेवार्त्त शरीर संहनन है। इस शरीर के सम्बन्ध में विद्वानों के प्राप्त विभिन्न मत इस प्रकार हैंसिद्धसेनगणी का मत- 'सृपाटिका नाम कोटिद्वयसंगते ये अस्थिनी चर्मस्नायुमांसावबद्धे तत् सृपाटिका नाम कीर्त्यते। सृपाटिका फलसंपुटकं यत्र तत्र फलकानि परस्परस्पर्शमात्रवृत्त्या वर्तन्ते एवमस्थीन्यत्र संहनने। तदेवमेतान्येवंविधास्थिसङ्घातलक्षणानि संहननानान्यौदारिक शरीर एव संहन्यन्ते, लोहपट्टनाराचकीलिका प्रतिबद्धकपाटवदिति। २२१ अर्थात् दो अस्थियों के मिलने पर चमड़ी, स्नायु और माँस से उनका परस्पर जुड़े रहना सृपाटिका या सेवार्त्त संहनन है। जिस प्रकार फलक परस्पर स्पर्शमात्रवृत्ति से साथ-साथ रहते हैं उसी प्रकार हड्डियाँ भी सेवार्त्त संहनन में साथ-साथ रहती हैं। इस प्रकार अस्थि संघात लक्षण वाला यह संहनन औदारिक शरीर में ही होता है। भट्ट अकलंक का मत- 'अंतरसंप्राप्तपरस्परास्थिसंधि बहिः शिरास्नायुमांसघटितम् असंप्राप्तासृपाटिका संहननं । अर्थात् जिसमें भीतर हड्डियों का परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहर से वे सिरा, स्नायु और माँस आदि से सुघटितता है, उसे असंप्राप्तसृपाटिका संहनन कहते हैं। वीरसेनाचार्य का मत- 'जस्स कम्मस्स उदएण अण्णोण्णमसंपत्ताइं सरिसिवहड्डाइं व छिराबद्धाइं हड्डाइं तं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं णाम ।' अर्थात् जिस कर्म के उदय से सरीसर्प की हड्डियों के समान परस्पर में असंप्राप्त और शिराबद्ध हड्डियाँ होती हैं वह असंप्राप्तसृपाटिका शरीर संहनन नामकर्म है। २२३ देवेन्द्रसूरि इस संहनन को छेदवृत्त नाम से अभिहित करते हैं।२७ उपाध्यायविनयविजय सेवार्त्त और छेदस्पृष्ट दोनों संज्ञाओं को स्पष्ट करते हैं . सेवयाभ्यंगाद्यया वा रुतं व्याप्तं ततस्तथा। छेदैः खंडैमिथः स्पृष्टं छेदस्पृष्ट मतोऽथवा ।। सेवा अर्थात् लेप द्वारा हड्डी का जोड़ मिला होने से शरीर के इस संहनन को 'सेवात' कहते हैं अथवा जिस शरीर में खंड एक-दूसरे से परस्पर स्पर्श करते हुए रहते हैं उस संहनन को
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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