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________________ लेखकीय पर्याप्ति होती है, जीव कब पर्याप्त अथवा अपर्याप्त कहलाता है तथा पर्याप्ति एवं प्राण में क्या सम्बन्ध है, इन सभी विषयों का विवेचन पर्याप्ति द्वार के अन्तर्गत किया गया है। जीवों के जन्म ग्रहण करने के स्थान को योनि कहते हैं। एक योनि में नाना प्रकार की जाति के जीवों के अनेक कुल होते हैं। एक ही भव या आयुष्य में जीव की स्थिति भवस्थिति कहलाती है तथा एक ही प्रकार की काय में स्थिति कायस्थिति कहलाती है। भवस्थिति दो प्रकार की होती है- सोपक्रम और निरूपक्रम तथा कायस्थिति अनन्तकाल तक भी सम्भव है। जैन दर्शन में पाँच प्रकार के शरीरों का निरूपण हुआ है- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। तैजस और कार्मण शरीर संसारी जीवों के साथ सदैव रहते हैं, मुक्त होने पर ही छूटते हैं। शरीर के आकार को जैन दर्शन में संस्थान कहा गया है। समचतुरन, न्यग्रोध परिमण्डल, सादि, वामन, कुब्जक और हुण्डक संस्थानों के स्वरूप आदि का निरूपण संस्थान द्वार में हुआ है। तृतीय अध्याय में अवगाहना, समुद्घात, गति, आगति से लेकर कषाय पर्यन्त दस द्वारों (११ से २०) के आधार पर चार गतियों के जीवों की विभिन्न विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। एक जीव आकाश के जितने प्रदेशों को अवगाहित करके रहता है वह उस जीव की अवगाहना कहलाती है। अवगाहना का दो प्रकार से निरूपण किया गया है-जघन्य एवं उत्कृष्ट। समुद्घात जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, तैजस, आहारक एवं केवली के भेद से सात प्रकार का निरूपित है। इन सातों स्थितियों में जीव के कुछ आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं, यही समुद्घात है। संसार में जीव एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करता रहता है। जीव का मृत्यु को प्राप्त कर नरक आदि गतियों में जन्म लेने को गति तथा जहाँ से आकर जीव जन्म लेता है उसे आगति कहते हैं। जैन दर्शन का यह गणितीय विधान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दूसरे भव में कौनसा जीव समकित प्राप्त कर सकता है तथा मोक्ष में जा सकता है, इसका निरूपण अनन्तराप्ति और समयसिद्धि द्वारों में किया गया है। लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। उपाध्याय विनयविजय स्पष्ट करते हैं कि लेश्या के बिना कर्म पुद्गलों का आत्मप्रदेशों से संयोग नहीं होता। लेश्या भी एक द्रव्य है जिसका समावेश योगवर्गणा में होता है। लेश्या का सम्बन्ध व्यक्ति के आभामण्डल से भी जोड़ा गया है। लेश्या एक प्रकार से व्यक्ति के व्यवहार की नियामक होती है। जीव भिन्न-भिन्न दिशाओं से पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं। वे पूर्व, पश्चिम आदि छह दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं, किन्तु व्याघात होने पर वे तीन, चार अथवा पाँच दिशाओं से भी आहार ग्रहण करते हैं। जीवों के अस्थि संयोजन को संहनन कहा गया है। वज्रऋषभनाराच आदि संहननों में
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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