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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन विक्रम संवत् १७३८ में उपाध्याय विनयविजय जी का रांदेर चातुर्मास के दौरान 'श्रीपाल राजानो रास' की रचना करते हुए स्वर्गगमन हुआ। द्वितीय अध्याय में द्रव्यलोक का निरूपण किया गया है। द्रव्यलोक से आशय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन षड् द्रव्यों का समूह है। द्रव्यलोक में इन षड् द्रव्यों का विवेचन भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण इन पाँच अपेक्षाओं से किया गया है। धर्मास्तिकाय जीव एवं पुद्गल की गति में निमित्त बनता है, अधर्मास्तिकाय स्थिति में निमित्त बनता है, आकाशास्तिकाय सभी द्रव्यों को स्थान देता है, काल से सभी द्रव्यों का परिणमन होता है, पुद्गल में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं तथा जीव ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग से युक्त होता है। लोकप्रकाश में जीवद्रव्य का जितना विस्तृत विवेचन है उतना अन्य द्रव्यों का नहीं। जीव द्रव्य का अग्रांकित ३७ द्वारों से व्यवस्थित निरूपण हुआ है- भेद, स्थान, पर्याप्ति, योनि, योनिसंख्या, कुलसंख्या, भवस्थिति, कायस्थिति, देह, संस्थान, अंगमान, समुद्घात, गति, आगति, अनन्तराप्ति, समयसिद्धि, लेश्या, दिगाहार, संहनन, कषाय, संज्ञा, इन्द्रिय, संज्ञित, वेद, दृष्टि, ज्ञान, दर्शन, उपयोग, आहार, गुणस्थान, योग, मान, लघु अल्पबहुत्व, दिगाश्रित अल्पबहुत्व, अन्तर, भवसंवेध और महा अल्पबहुत्व। इस द्वितीय अध्याय में इनमें से १ से १० द्वारों को आधार बनाकर जीव का विवेचन किया गया है। जैन दर्शन में जीवों की संख्या अनन्त स्वीकार की गई है तथा सभी जीवों को स्वतंत्र सत्तावान् माना गया है। जीव के मुख्यतः दो प्रकार हैं- संसारी और सिद्ध। संसारी जीवों के विभिन्न अपेक्षाओं से दो, तीन, चार यावत् बाईस भेद निरूपित किए गए हैं। उपाध्याय विनयविजय ने जीवों की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन मुख्यतः जीव के नौ भेदों के आधार पर किया है- १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय २. बादर एकेन्द्रिय ३. द्वीन्द्रिय ४. त्रीन्द्रिय ५. चतुरिन्द्रिय ६. तिथंच पंचेन्द्रिय ७. मनुष्य ८. देव और ६. नारक। इनका पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाओं के आधार पर भी विवेचन किया है। वनस्पति में चेतना का अस्तित्व आधुनिक विश्व को सर्वमान्य है, किन्तु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय में चेतना की सिद्धि हेतु वैज्ञानिक स्तर पर अभी और प्रयोग अपेक्षित हैं। आगम प्रमाण एवं तर्क के आधार पर इनमें जीवत्व की सिद्धि हेतु कुछ प्रयत्न हुए हैं। इस अध्याय में जीव की विभिन्न विशेषताएँ अभिव्यक्त हुई हैं। उदाहरण के लिए निज स्थिति, समुद्घात और उपपात के द्वारा जीव लोक के किस स्थान को अवगाहित करता है, इसका निरूपण स्थान द्वार में किया गया है। पर्याप्ति किसे कहते हैं, किन-किन जीवों में कौन-कौनसी
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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