SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० नवतत्त्वसंग्रहः प्रमाणसे वा अधिक माने ते 'मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी'. (१०) अपच्चक्खाण-जीवना अथवा अजीव मद्य आदिनो प्रत्याख्यान नही ते. (११) दिट्ठिया—देखने जाना अथवा देखना तेहथी जे पाप ते 'दृष्टिजा'. (१२) पुट्ठिया-पूंजने करी अथवा स्पर्श करी जे कर्म ते 'स्पृष्टिजा'. (१३) पाडुच्चिया–बाह्य वस्तु आश्री उपजे ते 'प्रातीत्यकी'. (१४) सामंतोवणिया-समंतात्-चौ फेरे उपनिपात-लोकांका मिलना तिहां जे उपनी ते 'सामंतोपनिपातिकी'. सांढ आदि रथ आदि लोक देखीने प्रशंसे तिम तिम घणी हर्षे ते धणीने 'सामंतोपनिपातिकी' क्रिया लागे. (१५) सहत्थिया-आपणे हस्तसे उपनी ते 'स्वाहस्तिकी'. (१६) निसत्थिया-नाखणे से सेडलादिसे नीपनी ते 'नैसृष्टिकी'. (१७) आणवणिया-पापनो आदेश देवो ते 'आज्ञापनिकी' अथवा वस्तु मंगवावणी. (१८) वियारणिया-जीवने वेदारतां वा दलालने जीव आदि वेचवानां अथवा पुरुषने विप्रतारता 'वैदारिणी', 'वैचारणिकी', 'वैतारणिकी' ए ३ पर्याय. (१९) अणाभोगवत्तियाअज्ञानना कारण थकी उपनी ते 'अनाभोगप्रत्ययिकी'. (२०) अणवकंखवत्तिया–अपणे शरीर आदिने ते निमित्त है जिसका ते 'अनवकांक्षाप्रत्ययिकी'. एतावता कुकर्म करता हुया परभवसे डरे नही. (२१) पेज्जवत्तिया-रागसे उपनी माया लोभरूप ('प्रेमप्रत्ययिकी'). (२२) दोसवत्तियाद्वेषथी उपनी क्रोध, मानरूप ('द्वेषप्रत्ययिकी'). (२३) पओगकिरिया-काया आदिकना व्यापारथी नीपनी ते 'प्रयोग' क्रिया. (२४) समुदाणकिरिया–अष्ट कर्मनो ग्रहवो ते 'समुदान'क्रिया. (२५) ईरियावहिया–योग निमित्त है जेहनो ते ('ईर्यापथिकी'), कायाना योग थकी बंध पडे. हेतु सत्तावन 'कर्मग्रन्थात्-मिथ्यात्व ५, अव्रत १२, कषाय २५, योग १५, एवं सर्व ५७ हेतु. इनका गुणस्थान उपर स्वरूप गुणस्थानद्वारसे जान लेना. और विशेष आश्रव त्रिभंगीसे जानना. श्रीस्थानांग (१० मे) स्थाने दस भेदे असंवर–(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रियअसंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, (६) मनअसंवर, (७) वचन-असंवर, (८) काय-असंवर, (९) भंडोवगरण-असंवर, (१०) सूची कुसग्गअसंवर, एवं ए दस आश्रवके भेद है. तथा आश्रवके ४२ भेद-इन्द्रिय ५, कषाय ४, अव्रत ५, योग ३, क्रिया २५, एवं ४२. इति आश्रवतत्त्वं पंचमं सम्पूर्णम्. अथ 'संवर' तत्त्व स्वरूप लिख्यतेपांच चरित्र, षट् निर्ग्रन्थ. प्रथम षनिर्ग्रन्थस्वरूप-(१) पुलाक, (२) बकुश, (३) प्रतिसेवना(कुशील), (४) कषायकुशील, (५) निग्रंथ अने (६) स्नातक. पुलाकके ५ भेदज्ञानपुलाक (अर्थात्) ज्ञानका विराधक १, एवं दर्शनपुलाक २, एवं चारित्रपुलाक ३, विना १. कर्मग्रन्थथी। २. भाण्डोपकरण।
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy