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________________ १८ हतो. निर्भय सूरिवर तो क्यारना ए स्वस्थ बनी मृत्यु- स्वागत करवानी तैयारी करी रह्या हता. आवे वखते पण एमना शरीरनी शोभा चन्द्रकान्तिने हास्यास्पद बनावी रही हती. एमना मुखमांथी 'अर्हन्' शब्दनो दिव्य ध्वनि नीकळी रह्यो हतो. सामे बेठेलो शिष्यपरिवार आ सर्वोत्तम नादनुं उत्सुक हृदये पान करी रह्यो हतो. एटलामां समय पूरो थयो. लो भाइ अब हम जाते हैं, अर्हन् एम कहेतां कहेतां ए सूरीश्वर स्वर्गे संचर्या. मनोहर रात्रि भयानक रूपे परिणमी. शांत रस करुणरूपे परिवर्तन पाम्यो. बीजे दिवसे एमना देहनो अग्निसंस्कार करवामां आव्यो. आ प्रमाणे एमना स्थूल देहनो अस्त थयो, परंतु साधुताना साचा आदर्शनी ए ज देह द्वारा आचरी बतावेल ज्योति तो सदाने माटे उदयवंती बनी गइ. आ प्रातःस्मरणीय सूरिवर्य विद्वानोना निःसीम प्रेमी हता, 'विद्याव्यासंगने लइने एमने हाथे बहु ग्रंथोनो उद्धार थयो छे. अनेक जनोने एमणे सन्मार्गी बनाव्या छे. तेमां खास करीने 'पंजाब' देश उपर एमनो पारावार उपकार छे. ए देशने उद्देशीने एमने जैन धर्मना जन्मदाता तरीके संबोधी शकाय. एमनी यश:पताकारूप त्यांना अनेक जैनमंदिरो आजे पण आ वातनी साक्षी पूरी रह्या छे. 'सिद्धाचल'मा एमनी पाषाणमयी प्रतिमा स्थापवामां आवी छे ए एमना प्रत्येना सज्जनोनो प्रेम जाहेर करे छे. अमदावाद, पाटण, वडोदरा, जयपुर, अंबाला. लधियाना वगेरे स्थळो एमनी मर्ति तेमज चरणपादकाथी विभषित बन्यां छे ए एमनी धर्मसेवानो प्रताप छे. 'गुजरांवाला' शहेरमा एमनी स्मृतिरूपे भव्य समाधिमंदिर बनावायुं छे ए त्यांनी जनता मन एमनी तरफ केटलुं आकर्षायेलुं हतुं ते सूचवे छे. __ जैन साहित्यने समृद्ध बनाववा तेमणे केवो सतत प्रयास कर्यो छे ए तेमनी नीचे मुजब तत्त्वनिर्णयप्रासादगत जीवनचरित्रने आधारे रजु कराती विविध कृतिओ कही रही छे : (१) नवतत्त्वसंग्रह सं. १९२४-२५, (२) आत्मबावनी सं. १९२७, (३) चोवीसजिनस्तवन सं. १९३०, (४) जैनतत्त्वादर्श सं. १९३७-३८, (५) अज्ञानतिमिरभास्कर सं. १९३९-४१, (६) सत्तरभेदी पूजा सं. १९३९, (७) सम्यक्त्वशल्योद्धार सं. १९३९-४१, (८) वीसस्थानक पूजा सं. १९४०, (९) जैनमतवृक्ष सं. १९४२, (१०) अष्टप्रकारी पूजा. सं. १९४३, (११) चतुर्थस्तुतिनिर्णय (भा.१) सं. १९४४ (१२) श्रीजैनप्रश्नोत्तरावली सं. १९४५, (१३) चतुर्थस्तुतिनिर्णय (भा. २) सं. १९४८, (१४) नवपदपूजा सं. १९४८, (१५) स्नात्रपूजा सं. १९५० अने (१६) तत्त्वनिर्णयप्रसाद सं. १९५१. ___ अंतमां एटलुं ज निवेदन करीश के आत्मभावमा रमण करनार श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजीनो जन्म सार्थक थयो छे. जेमने एमना दर्शननो लाभ मळ्यो छे तेमनी नेत्रप्राप्ति सफळ थइ छे. जेमने एमनो सुधामय उपदेश सांभळवानी तक मळी छे तेमना कर्ण धन्यपात्र छे. जे माताए आ सूरिरत्नने जन्म आप्यो तेमने सहस्रशः धन्यवाद अने वन्दन घटे छे. जे जैन संघे एमनुं गौरव कर्यु छे ते विचक्षण संघने मारा प्रणाम छे. जे 'भारत' भूमि आवा महात्माओनी जीवनभूमि बने छे ते बहुरत्ना वसुन्धरा सदा जयवंती वर्तो. १. सन्मतितर्क जेवा प्रौढ गन्थनु एमने पठन कर्यु हतुं एम मानवामां खास कारणो मळे छे. २. २०००० स्त्रीपुरुषोने धर्ममार्गे चढाववा उपरांत एमणे केटलाए स्थानकवासी साधुओने पण जैन धर्मनी प्रशस्त नौकाना कर्णधार बनाव्या. ३. उपदेशबावनी ते आ ज होय एम जणाय छे.
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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