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________________ १६ एनो उत्तर मळतां ए महाशयने पूर्ण संतोष थयो. त्यारबादना प्रश्नोत्तरोनुं सक्रिय परिणाम शुं आव्युं तेना जिज्ञासुने डॉ. हॉर्नलने हाथे संपादन थयेला सटीक उपासकदशांगमां ए विद्वाने जे कृतज्ञताप्रदर्शक निम्नलिखित पद्यो आ सूरिवरने उद्देशीने रच्यां छे तेनुं मनन करवा हुं विनवुं छु : " दुराग्रहध्वान्तविभेदभानो ! हितोपदेशामृतसिन्धुचित्त ! + सन्देहसन्दोहनिरासकारिन् !, जिनोक्तधर्मस्य धुरन्धरोऽसि ॥१॥ अज्ञानतिमिरभास्कर-मज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् । आर्हततत्त्वदर्श-ग्रन्थमपरमपि भवानकृत ॥२॥ आनन्दविजय ! श्रीमन्नात्माराम ! महामुने ! । मदीयनिखिलप्रश्न- व्याख्यातः ! शास्त्रपराग ! ||३|| कृतज्ञताचिह्नमिदं, ग्रन्थसंस्करणं कृतम् । यत्त्रसम्पादितं तुभ्यं, श्रद्धयोत्सृज्यते मया ||४|| वि. सं. १९४८मां आ डॉ. हॉर्नल् महोदय एमना दर्शनार्थे 'अमृतसर' आव्या. अहो तेमनी सुजनता ! वि. सं. १९४९मां 'चिकागो' मां भरवामां आवनार सर्वधर्मपरिषद् ने अलंकृत करवानुं एमने आमंत्रणपत्र मळ्युं, प्रतिकृति तेमज जीवनचरित्र माटे पण अभ्यर्थना करवामां आवी. परंतु नौकानो आश्रय लीधा विना 'अमेरिका' जवं अशक्य होवाथी, श्रीयुत वीरचंद राघवजी गांधी बार एट् लॉ ए महाशयने पोतानी प्रतिकृति, संक्षिप्त जीवनचरित्र अने जैन सिद्धान्त विषयक निबंध आपी पोताना प्रतिनिधि तरीके पसंद कर्या. थोडो वखत पासे राखी एमना सुवर्ण जेवा ज्ञानने श्रीविजयानन्दसूरिजीए सुगन्धनो योग अप्र्यो. 'मुंबई' ना जैन संघे श्रीयुत गांधीने अमेरिका मोकल्या. “ The World's Parliament of Religions” नामना पुस्तकना २१ मा पृष्ठमा एमनी प्रतिकृति आपी निम्नलिखित उद्गारो मुद्रित कराया छे : "No man has so peculiarly identified himself with the interests of the Jain community as Muni Atmāramji. He is one of the noble band sworn from the day of initiation to the end of life to work day and night for the high mission they have undertaken. He is the high priest of the Jain community and is recognised as the highest living authority on Jain religion and literature by oriental scholars". वि. सं. १९५३ ना जेठ मासनी सुद बीजे 'गुजरांवाला' गाममां एओ आव्या. आ समये त्यांना जैनोए एमनुं अपूर्व स्वागत कर्यु. ज्वराक्रान्त देह होवा छतां एमणे धर्मोपदेश आप्यो, परंतु आ एमनो अंतिम उपदेश हतो. हवे फरीथी 'भारत' वर्षना भाग्यमां आ महात्मानो ब्रह्मनाद श्रवण करवानो सुप्रसंग मळे तेम न हतुं. 'सप्तमीनी रात्रिए नित्यकर्म समाप्त करी सूविर्य निद्राधीन बन्या. एम करतां बार वाग्यानो समय थयो. आ वखते दशे दिशामां शांतता अने निश्चलतानुं साम्राज्य स्थपायेलुं हतुं. कायर मृत्युमां एवी ताकात न हती के आ महर्षिना अखंडित तेजनी ते सामे थइ शके. आथी ते धीरे धीरे गुप्त रूपे पोतानी कुटिल जाळ पाथरी रह्यो १. जे समये महाराज श्रीनो स्वर्गवास थयो तेवारे अष्टमी थती हती, एथी एमनी निर्वाणतिथि अष्टमी गणाय छे.
SR No.022331
Book TitleNavtattva Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Sanyamkirtivijay
PublisherSamyagyan Pracharak Samiti
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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